भारत में शादी की शुरुआत कैसे हुई? How did the marriage begin in India

How did the marriage begin in India

How did the marriage begin in India (भारत में शादी की शुरुआत कैसे हुई), How many types of marriage in India, हिंदू विवाह अधिनियम-1955, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-7 में सप्तपदी का महत्व

शादी दो लोगों के बीच जीवन भर चलने वाला रिश्ता है। विवाह दो लोगों को एक साथ लाने की परंपरा है। वहीं, अगर विवाह को दूसरे शब्दों में समझा जाए तो दो व्यक्तियों के रिश्ते को सामाजिक और धार्मिक स्वीकृति देना है। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि शादी की शुरुआत कैसे हुई और सबसे पहले किसने शादी की? आइए जानते हैं कि भारत में विवाह की परंपरा कैसे शुरू हुई।

How did the marriage begin in India | भारत में शादी की शुरुआत कैसे हुई?

शुरुआत में शादी जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी। स्त्री-पुरुष दोनों स्वतंत्र थे। पहले के समय में कोई भी पुरुष किसी भी महिला को पकड़कर अपने साथ ले जा सकता था। इस संबंध में महाभारत में एक कथा है।

एक बार ऋषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी एक अजनबी वहां आये और उनकी मां को ले गये। ये सब देखकर श्वेतकेतु बहुत क्रोधित हुए। उनके पिता ने उन्हें समझाया कि यह नियम प्राचीन काल से चला आ रहा है। उन्होंने आगे कहा कि दुनिया की सभी महिलाएं इस नियम के अधीन हैं।

श्वेत ऋषि ने इसका विरोध किया और कहा कि यह पाशविक प्रवृत्ति है यानी जानवरों की तरह जीवन जीने के समान है। इसके बाद उन्होंने विवाह के नियम बनाये।

उन्होंने कहा कि अगर कोई महिला शादी के बंधन में बंधने बाद किसी दूसरे पुरुष के पास जाती है तो उसे गर्भपात करने जितना ही पाप लगेगा। इसके अलावा जो पुरुष अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री के पास जाता है उसे भी इस पाप की सजा भुगतनी पड़ेगी।

उन्होंने यह भी कहा कि शादी के बंधन में बंधने के बाद पुरुष और महिला मिलकर अपना घर चलाएंगे। उन्होंने ही यह सीमा तय की थी कि कोई भी महिला अपने पति के जीवित रहते हुए उसकी अनुमति के बिना किसी अन्य पुरुष के साथ यौन संबंध नहीं बना सकती है।

How many types of marriage in India | भारत में विवाह कितने प्रकार के होते हैं?

इसके बाद महर्षि दीर्घतमा ने एक परंपरा शुरू की और कहा कि पत्नियों को जीवन भर अपने पतियों के अधीन रहना होगा। इसके बाद पति की मौत के बाद लोग उसकी पत्नी को भी जलाने लगे, जिसे सती प्रथा कहा जाता था।

उस समय तक विवाह दो प्रकार के होते थे। पहले तो वे मारपीट, हाथापाई या बहला फुसलाकर लड़की को उठा ले जाते थे। दूसरा, यज्ञ के समय कन्या को दक्षिणा के रूप में दान किया जाता था।

इसके बाद विवाह का अधिकार पिता को दे दिया गया। जिसमें पिता योग्य वर को बुलाते थे और उनमें से अपनी बेटी को चुनने के लिए कहते थे। पहले दैव, ब्रह्मा, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच नाम से आठ प्रकार के विवाह होते थे। लेकिन, आजकल आजकल ब्रह्म विवाह का प्रचलन है।

Hindu Marriage Act-1955 | हिंदू विवाह अधिनियम-1955

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में लागू हुआ। इस कानून के अनुसार, हिंदू जाति के दो लड़के और लड़कियां शादी कर सकते हैं, लेकिन उनका एक-दूसरे से खून का रिश्ता नहीं होना चाहिए। साथ ही, यह कानून बताता है:

  • अगर कोई युवक या युवती दोबारा शादी करना चाहता है तो दूसरी शादी तब तक मान्य नहीं होगी जब तक उसका तलाक न हो या दोनों में से एक जीवित न हो।
  • यह कानून हिंदुओं के अलावा बौद्ध और जैन धर्म पर भी लागू होता है।
  • इस कानून के मुताबिक दूल्हे की उम्र 21 साल और दुल्हन की उम्र 18 साल होनी चाहिए
  • यह अधिनियम धर्म की परवाह किए बिना हिंदुओं और बौद्धों, जैनियों या सिखों पर लागू होता है और यह देश में रहने वाले सभी व्यक्तियों पर भी लागू होता है जो मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं।

What is the Special Marriage Act | विशेष विवाह अधिनियम क्या है?

विशेष विवाह अधिनियम या स्पेशल मैरिज एक्ट वर्ष 1954 में बनाया गया था। स्पेशल मैरिज एक्ट एक ऐसा कानून है जिसके तहत भारत का संविधान दो अलग-अलग जातियों या धर्मों के लोगों को विवाह करने की अनुमति देता है। यह सभी भारतीय नागरिकों के लिए मान्य है और उन लोगों के लिए भी मान्य है जो भारतीय भारत से बाहर रह रहे हैं।

इस कानून के मुताबिक, किसी भी धर्म के लोग शादी कर सकते हैं, बशर्ते वे भारतीय हों। इस कानून की नींव 19वीं सदी में रखी गई थी जब सिविलमैरिज एक्ट की पहल हुई थी। इसके बाद 1954 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और नए एक्ट में तीन महत्वपूर्ण नियम बनाये गये-

  1. एक खास तरह की शादियों के लिए रजिस्ट्रेशन सुविधा।
  2. अलग-अलग धर्मों के लोगों की शादी के लिए सुविधा।
  3. शादी के बाद तलाक की सुविधा।

What are the basic rules for marriage in India?

इस अधिनियम से संबंधित परिभाषाएँ इस अधिनियम की धारा 3 में दी गई हैं।

  • धारा 3 (ए) में कहा गया है कि प्रथा और उपयोग शब्द किसी भी नियम को दर्शाते हैं, जो लंबे समय तक लगातार और समान रूप से पालन किए जाने के बाद, किसी स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या परिवार में हिंदुओं के बीच कानूनी रूप प्राप्त कर चुका है।
  • इस अधिनियम की धारा 4 में अधिनियम के सर्वव्यापी प्रभाव को बताया गया है।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि कुछ शर्तों को पूरा करने पर किन्हीं दो हिंदुओं का विवाह हो सकता है। इसमें कहा गया है कि विवाह तभी हो सकता है जब विवाह के समय किसी भी पक्ष का जीवनसाथी जीवित न हो। इसमें इसी तरह की और भी स्थितियों का जिक्र है।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-7 में सप्तपदी का महत्व

सप्तपदी का महत्व

इसका उल्लेख हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 में किया गया है, यह धारा हिंदू विवाह के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठानों या समारोहों के बारे में बताती है। धारा 7 (1) में कहा गया है कि हिंदू विवाह किसी भी पक्ष के पारंपरिक संस्कारों और समारोहों के अनुसार किया जा सकता है।

धारा – 7(2) में कहा गया है कि ऐसे संस्कारों और समारोहों में सप्तपदी (यानी दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के समक्ष एक साथ सात फेरे लेना) शामिल है और सातवां कदम उठाने से विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है। सरल शब्दों में कहें तो सातवां फेरा पूर्ण होने पर ही हिंदू विवाह संपन्न होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिंदू विवाह सिर्फ नाच-गाने या खाने-पीने का अवसर नहीं है। साथ ही यह कोई व्यावसायिक लेनदेन नहीं है। इसे हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तब तक वैध नहीं माना जा सकता जब तक कि कोई धार्मिक समारोह न किया गया हो।

जस्टिस बीवी नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि हिंदू विवाह एक संस्कार और एक धार्मिक उत्सव है, जिसे भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था का दर्जा दिए जाने की आवश्यकता है।

hindu marriage act 1955

शादी के बंधन में बंधने से पहले अच्छे से सोच विचार करें युवा

हम युवाओं से कहना चाहेंगे कि वे विवाह संस्था के बारे में ध्यान से सोचें और यह समझने का प्रयास करें कि यह संस्था भारतीय समाज के लिए कितनी पवित्र है। यह एक बहुत ही मौलिक घटना है जो एक पुरुष और एक महिला के बीच के रिश्ते का जश्न मनाती है जिन्हें पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त है और वे एक परिवार बनाते हैं। यही परिवार भारतीय समाज की मूल इकाई है।

हम इस चलन की निंदा करते हैं, जिसमें युवा महिलाएं और पुरुष पति-पत्नी का स्टेटस पाने के लिए ऐसी शादी करते हैं, जिसमें हिंदू मैरिज एक्ट के तहत विवाह संस्कार नहीं होते हैं। सुप्रीम कोर्ट

प्रथा क्या है, इसका कानून में है स्पष्ट वर्णन

हिंदू विवाह अधिनियम भी रीति-रिवाज को परिभाषित करता है। अधिनियम का नियम 3 कहता है…

रूढ़ि या प्रथा शब्द का अर्थ एक ऐसा नियम है जिसका लंबे समय से लगातार और समान रूप से पालन किया जाता है और जिसने स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या परिवार के हिंदुओं के बीच कानून जैसी मान्यता प्राप्त कर ली है। लेकिन ऐसी रूढ़ि या प्रथा तब तक मान्य होगी जब तक कि वह अनुचित या सार्वजनिक नीति के विपरीत न हो और कोई भी रूढ़ि या प्रथा विवाह के केवल एक पक्ष पर लागू होती हो, लेकिन वह लागातार लंबे समय से चली आ रही हो।

सप्तपदी पर क्या कहता है हिंदू विवाह कानून

हिंदू विवाह अधिनियम में यह भी कहा गया है कि हिंदू विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब कुछ रीति-रिवाजों का पालन किया जाए। हिंदू विवाह अधिनियम में कहा गया है कि यह सप्तपदी है जिसका पालन करने के बाद ही हिंदू विवाह संभव है। अधिनियम का नियम 7 कहता है-

हिंदू विवाह के लिए कर्मकांड

  1. एक हिंदू विवाह उसके किसी भी पक्ष के बीच केवल पारंपरिक रीति-रिवाजों और कर्मकांड के अनुसार ही संपन्न किया जा सकता है।
  2. जहां ऐसे रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में सप्तपदी (यानी दूल्हा और दुल्हन द्वारा अग्नि की परिक्रमा) शामिल है, वहां सातवां फेरा लेने के बाद ही विवाह संपन्न और वैध होता है।

सात की संख्या का महत्व

हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार पृथ्वी पर पाई जाने वाली सभी महत्वपूर्ण वस्तुओं की संख्या 7 मानी गई है, जैसे सात स्वर, इंद्रधनुष के सात रंग, सात तारे, सात महासागर, सात ऋषि, सात दिन, सात चक्र, मनुष्य के सात कर्म आदि। यही कारण है कि वैदिक और पौराणिक मान्यताओं में 7 अंक को शुभ माना जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए शादी के दौरान सात फेरे लेने की मान्यता है।

हिंदू धर्म में शादी को सात जन्मों का बंधन माना जाता है। विवाह में वर-वधू के साथ फेरे लेने की प्रक्रिया को सप्तपदी कहा जाता है। सात फेरों के दौरान दूल्हा-दुल्हन अग्नि को साक्षी मानकर उसके चारों ओर सात फेरे लेते हैं, और दुल्हन पति-पत्नी के रिश्ते को बनाए रखने की कसम खाती है। इन सात फेरों को हिंदू विवाह की स्थिरता का मुख्य आधार माना जाता है।

हिंदू मैरिज एक्ट में बहुविवाह प्रथा की जगह नहीं

बहुपति प्रथा, बहुविवाह प्रथा और ऐसी अन्य प्रथाओं का हिंदू विवाह अधिनियम में कोई स्थान नहीं है।इसलिए कई सदियां बीतने और हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने के बाद, एक महिला का एक पुरुष से और एक पुरुष का एक महिला से विवाह को कानूनी मान्यता मिल गई है।

18 मई, 1955 को लागू होने के बाद से, यह कानून हिंदुओं में विवाह का एक कानून बन गया है। इसमें न केवल हिंदू बल्कि लिंगायत, ब्रह्मो, आर्य समाज, बौद्ध, जैन और सिख भी शामिल हैं।

जब तक दूल्हा और दुल्हन इन रस्मों से नहीं गुजरते, तब तक हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के तहत कोई भी हिंदू विवाह नहीं माना जाएगा, और किसी भी प्राधिकारी से प्रमाण पत्र की प्राप्ति पार्टियों को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाहित होने या विवाह का दर्जा नहीं देगी और न ही इसे हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह माना जाएगा।

कोर्ट ने कहा कि विवाह पंजीकरण का फायदा यह है कि इसे किसी भी विवाद की स्थिति में सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है, लेकिन यदि विवाह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के तहत नहीं हुआ है तो पंजीकरण से विवाह को मान्यता नहीं मिलेगी।

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