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पोखरण परमाणु परीक्षण 1998 की कहानी (Pokhran Nuclear Test 1998), 1974 Smiling Buddha First Nuclear Test in India, 1962 भारत-चीन युद्ध, पोखरण 2: ऑपरेशन शक्ति
11 मई 1998 को, भारत ने राजस्थान के पोखरण में 3 परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था। खेतोली गांव के पास पोखरण फील्ड फायरिंग रेंज में कुल 5 परीक्षण किए गए, जिनमें से दो टेस्ट 13 मई को किए गए। इसके साथ ही भारत परमाणु हथियार संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया।
इस कार्यक्रम की जड़ें द्वितीय विश्व युद्ध में थीं जब भारत ने 1944 में अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू किया था। होमी जहांगीर भाभा ने उसी वर्ष ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च’ की स्थापना की और उनके साथ भौतिक विज्ञानी राज रमन्ना ने परमाणु हथियारों के तकनीकी अनुसंधान में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अंततः यह परीक्षण उन्हीं की देखरेख में किया गया।
आज़ादी के बाद देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. भाभा को परमाणु ऊर्जा संयंत्र कार्यक्रम के लिए हरी झंडी दे दी, लेकिन उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि भारत परमाणु शक्ति का उपयोग केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही करेगा।
हालाँकि पंडित नेहरू ने कुछ शर्तों के तहत परमाणु ऊर्जा के लिए अमेरिका और कनाडा से सहयोग मांगा, उनके शासनकाल के दौरान भारत में परमाणु अनुसंधान जारी रहा और भारत ने अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता बढ़ाने के लिए भी काम किया।
भारत (और पंडित नेहरू) को पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका से कभी भी अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। यही कारण था कि 1962 तक डॉ. होमी भाभा को परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए आवश्यक तकनीक विकसित करने के लिए हरी झंडी दे दी गई, जो परमाणु बम बनाने के लिए आवश्यक तकनीक थी।
फिर पंडित जी भारत-चीन युद्ध में उलझ गए, कहा जाता है कि डॉ. भाभा कहते थे कि वह एक साल में परमाणु बम बना सकते हैं। चीन की आक्रामकता के जवाब में भारत को सोवियत संघ से मदद की उम्मीद थी, लेकिन सोवियत संघ का चीन के प्रति अपना वैचारिक झुकाव था और वह खुद क्यूबा के मुद्दे में उलझा हुआ था।
इसके बाद भारत ने अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान देना शुरू किया लेकिन पहले नेहरू, फिर लाल बहादुर शास्त्री और कुछ दिनों बाद परमाणु वैज्ञानिक डॉ. होमी भाभा की मृत्यु ने स्थिति बदल दी।
भाभा की मृत्यु के बाद राजा रमन्ना ने परमाणु कार्यक्रम की बागडोर संभाली। 1967 में परमाणु परीक्षण की दिशा में तेजी आई और 1969 तक भारत ने प्लूटोनियम रिएक्टर पर काम करना शुरू कर दिया और लगभग 75 वैज्ञानिकों की एक टीम परमाणु परीक्षण की तैयारी में लग गई, जिसमें विक्रम साराभाई, राजा रमन्ना जैसे कई महान वैज्ञानिक शामिल थे।
1971 में एक और मौका आया जब भारत को विश्व के प्रमुख देशों से निराशा हाथ लगी। 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिका भारत से नाराज हो गया और उसने भारत को रोकने के लिए अपना युद्धपोत सीवीएन 65 बंगाल की खाड़ी में भेज दिया। लेकिन उससे पहले ही सोवियत संघ की मदद भारत पहुंच गई, बांग्लादेश आज़ाद हो गया और अमेरिका कुछ खास नहीं कर सका।
पाकिस्तान से युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस मिशन को प्राथमिकता दी। इस दिशा में इंदिराजी के सचेत प्रयासों के फलस्वरूप वैज्ञानिकों ने तीन वर्षों में पहला परमाणु परीक्षण किया। यह मिशन इतना गुप्त था कि ऑपरेशन सफल होने के बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन को इसकी जानकारी हुई।
इंदिराजी ने इस मिशन को गुप्त रखा था, जिसकी जानकारी केवल कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों को ही थी। इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने वाले वैज्ञानिकों की टीम के एक प्रमुख सदस्य, राजा रमन्ना को मिशन के बारे में पता था क्योंकि विस्फोट के सूत्रधार वही थे।
मुख्य सचिव पी. एन. हक्सर और उनके सहयोगी मुख्य सचिव पी. एन. धर, भारतीय रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. नाग चौधरी और परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष एच. एन. सेठना जैसे कुछ ही लोगों को इस मिशन के बारे में जानकारी थी।
विस्फोट को लेकर अंतिम बैठक होनी थी, परियोजना को सफल बनाने वाले वैज्ञानिकों की टीम के प्रमुख सदस्य राजा रमन्ना ने अपनी जीवनी ‘इयर्स ऑफ पिल्ग्रिमेज’ में कहा, मेरा मानना था कि यह महज औपचारिकता होगी लेकिन बैठक में बहस हो गई।
पीएन धर ने विस्फोट का विरोध किया, उनका मानना था कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा। वहीं रमन्ना ने कहा अब तैयारी पूरी हो चुकी है, ऐसे में टेस्ट टालना मुश्किल है। इसी गरमागरम चर्चा के बीच अचानक इंदिरा गांधी की आवाज सुनाई दी, उन्होंने कहा ‘परीक्षण निश्चित समय पर होना चाहिए और भारत को दुनिया के सामने ऐसे प्रदर्शन की जरूरत है।’
जिस परमाणु उपकरण में विस्फोट हुआ वह षटकोणीय आकार का था, जिसका वजन 1400 किलोग्राम, और व्यास 1.25 मीटर था। सेना डिवाइस को रेत में छिपाकर और आर्मी बेस कैंप में ले गई। 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में सुबह 8.05 बजे धमाका हुआ। धमाका इतना जोरदार था कि जमीन में 45 से 75 मीटर का गड्ढा हो गया और भूकंप के झटके 10 किलोमीटर दूर तक महसूस किये गये।
इसके कारण अमेरिका और कनाडा द्वारा भारत पर प्रतिबंध भी लगाए गए, जिन्होंने शुरू में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में भारत का समर्थन किया था। लेकिन उस दौरान भारत के प्रति एक के बाद एक लंबे समय तक चले असहयोग ने धीरे-धीरे भारत को अपने परमाणु परीक्षण करने के लिए प्रेरित किया।
18 मई 1974 को भारत ने परमाणु परीक्षण किया, जिसे ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा के नाम से जाना जाता है। यह फिजन टेस्ट था जिसे जमीन के अंदर किया गया था। इस विस्फोट से 12 किलोटन टीएनटी ऊर्जा निकली, हालाँकि इसकी यील्ड को लेकर विवाद है। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स ने दावा किया था कि ये भारतीय परीक्षण आंशिक रूप से सफल रहे होंगे। 1974 के परमाणु परीक्षण का उद्देश्य यह देखना था कि घर में बना परमाणु उपकरण में विस्फोट होता है या नहीं।
जबकि 1998 के परमाणु परीक्षण का उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि भारत परमाणु शक्ति बन गया है।
दरअसल, 1995 में भारत ने परमाणु परीक्षण करने पर विचार किया था, लेकिन अमेरिका नहीं चाहता था कि कोई उसकी बराबरी करे। 1995 में किये गये परमाणु परीक्षणों को अमेरिकी उपग्रहों और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने पूरी तरह से विफल कर दिया था। भारत ने उससे सबक लिया और दूसरे टेस्ट को एकदम गुप्त रखा गया।
साल 1998 में, एनडीए सरकार के सत्ता में आने के कुछ ही दिनों के भीतर, नरसिम्हा राव ने नए प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से मुलाकात की और कहा, “सामग्री तैयार है, आप आगे बढ़ सकते हैं।” संसद में विश्वास मत प्राप्त करने के एक पखवाड़े के भीतर, वाजपेयी जी ने परमाणु परीक्षण की तैयारियों पर चर्चा करने के लिए डॉ. कलाम और डॉ. चिदम्बरम (परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व प्रमुख) को बुलाया।
तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन 26 अप्रैल से 10 मई तक दक्षिण अमेरिकी देशों की यात्रा पर जाने वाले थे, उनसे चुपचाप कुछ दिनों के लिए अपनी यात्रा स्थगित करने के लिए कहा गया। 27 अप्रैल को डॉ. चिदम्बरम की बेटी की शादी होने वाली थी, उस शादी को भी कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया क्योंकि शादी में चिदम्बरम की अनुपस्थिति से संकेत मिलता कि कुछ बड़ा होने वाला है।
डॉ. कलाम ने सलाह दी कि विस्फोट 11 मई 1998 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन किया जाना चाहिए।
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC) के शीर्ष वैज्ञानिकों को 20 अप्रैल 1998 तक भारत के परमाणु विस्फोट करने के निर्णय के बारे में जानकारी दी गई। वे छोटे-छोटे समूह में पोखरण की ओर बढ़ने लगे। उन्होंने अपनी पत्नियों से कहा था कि वह या तो दिल्ली जा रहे हैं या किसी ऐसी जगह सम्मेलन में भाग ले रहे हैं जहां अगले 20 दिनों तक उनसे फोन पर संपर्क नहीं किया जा सकेगा।
मिशन को गुप्त रखने के लिए, प्रत्येक वैज्ञानिक ने एक अलग नाम के तहत यात्रा की और सीधे पोखरण जाने के बजाय वहां पहुंचने के लिए काफ़ी घूमकर यात्रा की। BARC और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) की टीम में कुल मिलाकर 100 वैज्ञानिक थे।
पोखरण पहुंचते ही उन सभी को सेना की वर्दी पहनने के लिए दी गई। उन सभी को लकड़ी के पार्टीशन वाले कम ऊंचाई वाले कमरों में रखा गया था जिनमे केवल एक बिस्तर के लिए पर्याप्त जगह थी। वैज्ञानिकों को सेना की वर्दी पहनने में कठिनाई होती थी क्योंकि वे स्टार्च लगे कपड़े पहनने के आदी नहीं थे।
परमाणु बम का कोडनेम ‘कैंटीन स्टोर्स’ रखा गया था। बम धमाकों को हरी झंडी मिलने के बाद सबसे बड़ा सवाल यह था कि मुंबई में एक भूमिगत वॉल्ट में रखे गए बमों को पोखरण तक कैसे पहुंचाया जाए।
यह वॉल्ट्स 80 के दशक में बनाई गई थी और हर साल विश्वकर्मा पूजा पर खोली जाती थी। उस दिन वैज्ञानिक और मजदूर तिजोरी के दरवाजे पर पूजा करते थे। कभी-कभी जब प्रधानमंत्री BARC जाते थे, तो उन्हें वो तिजोरियाँ दिखाई जाती थीं। एक बार वह तिजोरी सेना प्रमुख जनरल सुंदरजी को भी दिखाई गई थी। छह प्लूटोनियम बम गेंदों के आकार में बनाए गए थे जो टेनिस गेंदों से थोड़े बड़े थे।
इन गेंदों का वजन तीन से आठ किलो के बीच था और ये सभी एक काले बक्से में रखी हुई थीं। इन बक्सों का आकार सेब की पेटियों जैसा था, लेकिन इनके अंदर पैकिंग इस तरह की गई थी कि पोखरण ले जाते समय विस्फोटकों को नुकसान न हो।
BARC वैज्ञानिकों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द अपने ही सुरक्षाकर्मियों को बिना बताए गोले हटवाना था। सुरक्षाकर्मियों को बताया गया कि कुछ विशेष उपकरण दक्षिण में दूसरे परमाणु संयंत्र में ले जाने होंगे। इसके लिए रात में एक ट्रकों का बेड़ा विशेष गेट से आएगा।
मुंबई में आधी रात के बाद भी काफी हलचल रहती है, इसलिए ट्रैफिक जाम से बचने और संदेह की कोई गुंजाइश न रहे, इसके लिए इन ट्रकों को रात 2 बजे से सुबह 4 बजे के बीच बुलाने का फैसला किया गया।
वरिष्ठ पत्रकार राज चेंगप्पा अपनी किताब ‘वेपन्स ऑफ पीस द सीक्रेट, स्टोरी ऑफ इंडियाज क्वेस्ट टू बी ए न्यूक्लियर पावर’ में लिखते हैं, ‘1 मई की सुबह चार ट्रक चुपचाप BARC प्लांट में पहुंचे। प्रत्येक ट्रक में पांच हथियारबंद सैनिक थे। ट्रकों को किसी भी प्रकार के बम हमले से बचाने के लिए बख्तरबंद प्लेटों से सुसज्जित किया गया था। दो ब्लैक बॉक्स को अन्य उपकरणों के साथ तुरंत ट्रक पर लाद दिया गया। डीआरडीओ टीम के वरिष्ठ सदस्य ओमंग कपूर ने कहा, ‘हिस्ट्री इज़ नाऊ ऑन द मूव।’
वहाँ से ये चारों ट्रक तेज़ रफ़्तार से 30 मिनट की दूरी पर स्थित मुंबई एयरपोर्ट की ओर बढ़े।
उद्देश्य बताए बिना हवाई अड्डे पर सभी आवश्यक मंजूरी पहले ही ले ली गई थी। ट्रक सीधे हवाई पट्टी पर गए, जहां एक एएन 32 ट्रांसपोर्ट विमान उनका इंतजार कर रहा था। विमान के अंदर केवल चार सुरक्षाकर्मी रखे गए थे, जिससे बाहरी दुनिया को यह आभास हुआ कि यह सेना का एक रुटीन मूवमेंट है।
किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि उस विमान में जो कुछ ले जाया गया है, वह मिनटों में पूरे मुंबई शहर को तबाह कर सकता है। एएन 32 विमान ने सुबह मुंबई हवाई अड्डे से उड़ान भरी और दो घंटे बाद जैसलमेर हवाई अड्डे पर उतरा। वहाँ ट्रकों का एक और बेड़ा उनका इंतज़ार कर रहा था।
हर ट्रक पर हथियार लेकर सैनिक बैठे थे और जब वे ट्रक से उतरे तो उन्होंने हथियारों को तौलिए से छुपा लिया। सुबह का समय था जब ट्रक जैसलमेर हवाई अड्डे से पोखरण के लिए निकले।
राज चेंगप्पा लिखते हैं, पोखरण में ये ट्रक सीधे ‘प्रार्थना हॉल’ पहुंचे जहां इन बमों को असेंबल किया गया। जब प्लूटोनियम के गोले वहां पहुंचे तो भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष राजगोपाल चिदम्बरमने राहत की सांस ली। वह बड़ी बेसब्री से उनका इंतजार कर रहे थे। उन्होंने याद किया कि कैसे 1971 की तुलना में इस बार स्थिति अलग थी, तब उन्हें परमाणु उपकरण अपने साथ पोखरण लाना पड़ा था।
तत्कालीन विदेश सचिव के. रघुनाथ ने अमेरिका को बता दिया था कि भारत परमाणु हथियारों का परीक्षण नहीं कर रहा है। इस ऑपरेशन को ‘ऑपरेशन शक्ति’ नाम दिया गया था और ऑपरेशन के दौरान बातचीत कोड वर्ड में होती थी। जबकि परमाणु बम दस्ते को ताज महल कहा जाता था, व्हाइट हाउस और कुंभकरण भी प्रोजेक्ट में शामिल कुछ कोड वर्डस थे।
अब्दुल कलाम का नाम मेजर जनरल पृथ्वी राज और राजगोपाला चिदम्बरम (तत्कालीन परमाणु ऊर्जा प्रमुख) का नाम नटराज था।
परीक्षण से कुछ दिन पहले, पुली सिस्टम का उपयोग करके शाफ्ट को नीचे उतारा जा रहा था, तभी अचानक बिजली चली गई और लोग शाफ्ट के अंदर फंस गए। बिजली वापस आने में घंटों लग गए और उन्होंने आपस में चुटकुले सुनाकर समय बिताया।
बार-बार बिजली कटौती से काम में बाधा उत्पन्न हो रही थी। बिजली होने पर भी उपकरणों के जलने का खतरा लगातार बना रहता था क्योंकि इसमें बहुत उतार-चढ़ाव होता था। अंततः यह निर्णय लिया गया कि जनरेटर, जिसका कोडनेम ‘फार्म हाउस’ था, को उस जगह पर स्थानांतरित कर दिया जाए जहां काम चल रहा था।
पोखरण में वैज्ञानिकों की टीम ऊपर से गुजरने वाले उपग्रहों द्वारा देखे जाने से बचने के लिए केवल रात में ही काम करती थी। उन दिनों की तारों भरी रातें उनकी यादों का हिस्सा बन गई थीं।
राज चेंगप्पा लिखते हैं, ”एक रात वैज्ञानिक कौशिक ने रात में एक सैटेलाइट देखा। तीन घंटे में उन्होंने वहाँ से चार उपग्रहों को गुजरते देखा। उन्होंने DRDO टीम के सदस्य कर्नल बीबी शर्मा से कहा, “सर, उन्हें शक हो गया है कि हम कुछ कर रहे हैं, वरना एक रात में इतने सारे सैटेलाइट गुज़रने का क्या मतलब है?” शर्मा ने कहा, “हमें अधिक सावधान रहना चाहिए, हम कोई जोखिम नहीं ले सकते।”
जब 1995 में नरसिम्हा राव ने परमाणु विस्फोट करने का फैसला किया, तो अमेरिकी उपग्रहों को नए लॉन्च किए गए केबलों के माध्यम से भारत के इरादों के बारे में पता चला। उस समय यह भी देखा गया था कि अमेरिकी उपग्रहों ने शाफ्ट को बंद करने के लिए बड़ी मात्रा में रेत का उपयोग किया था। वहां बड़ी संख्या में वाहनों की आवाजाही ने अमेरिकियों को भी सतर्क कर दिया था।
1998 में भी अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी CIA ने पोखरण के ऊपर चार उपग्रह रखे थे। परीक्षण से कुछ समय पहले केवल एक उपग्रह पोखरण पर नजर रख रहा था और वह भी सुबह 8 बजे से 11 बजे के बीच।
परीक्षण से एक रात पहले केवल एक अमेरिकी विश्लेषक को उपग्रह से प्राप्त चित्रों की समीक्षा करने का काम सौंपा गया था। उसने अगले दिन अधिकारियों को पोखरण से ली गई कुछ तस्वीरें दिखाने का भी फैसला किया, लेकिन जब तक अधिकारी तस्वीरों का निरीक्षण कर पाते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
हमारे वैज्ञानिकों को पोखरण परमाणु परीक्षण की तैयारी और पूर्वाभ्यास करने के लिए केवल डेढ़ साल का समय मिला था। इस ऑपरेशन की गोपनीयता बनाए रखना सर्वोच्च प्राथमिकता थी। वैज्ञानिकों ने परीक्षण स्थल पर केवल रात में काम किया, जब अमेरिकी और अन्य देशों के सैटेलाइट प्रकाश के अभाव के कारण स्पष्ट तस्वीरें लेने में असमर्थ थे।
सुबह होते ही सब कुछ पिछले दिन जैसा ही रख दिया जाता था। फिर, जब अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए के विश्लेषक दिन के उजाले में सैटेलाइट तस्वीरें देखते थे तो ऐसा लगता था मानो एक पत्थर भी नहीं हिला हो।
पोखरण में हुए दोनों परमाणु परीक्षणों में प्याज ने अहम भूमिका निभाई थी। इन परीक्षणों में प्याज का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया गया। भारत के दूसरे परमाणु बम परीक्षण में अहम भूमिका निभाने वाले वैज्ञानिक अनिल काकोडकर ने एक बार स्वीकार किया था कि हां, प्याज का इस्तेमाल किया गया था।
परमाणु परीक्षण के लिए पहला शाफ्ट 208 मीटर गहरा खोदा गया, जिसका नाम व्हाइट हाउस रखा गया था। पहले इसमें कुछ प्याज भरे गए, फिर बम को 150 मीटर की गहराई में प्लांट किया गया। बम के ऊपर मिट्टी के साथ प्याज भर दिए गए, इसके बाद शाफ्ट के पास सतह पर भी प्याज बिछाए गए।
इस परीक्षण से काफी पहले ही सेना समेत कुछ संगठनों ने योजनाबद्ध तरीके से बड़ी मात्रा में प्याज खरीदना शुरू कर दिया था। यह प्याज लगातार कई दिनों तक किश्तों में पोखरण पहुंचाया जा रहा था, ताकि किसी को भनक तक न लगे कि एक साथ इतना प्याज पोखरण क्यों ले जाया जा रहा है।
परमाणु विस्फोट के बाद अल्फा, बीटा और गामा किरणें निकलती हैं। इनमें गामा किरणें सबसे घातक मानी जाती हैं। गामा किरणें शरीर के अंदर तक प्रवेश करती हैं और ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देती हैं। भौतिक विज्ञानियों का मानना है कि प्याज गामा किरणों को अच्छी तरह से अवशोषित कर लेता है, इसलिए यह लंबी दूरी तक नहीं फैलती।
परीक्षण के दिन 11 मई को, एपीजे अब्दुल कलाम ने प्रधानमंत्री आवास पर फोन किया और उन्हें सूचित किया कि हवा की गति कम हो रही है और परीक्षण अगले घंटे में किया जा सकता है। कंट्रोल रूम में प्लास्टिक के स्टूल पर बैठे पोखरण विस्फोट से जुड़े वैज्ञानिक मौसम की रिपोर्ट का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर ब्रजेश मिश्रा (NSA – 1998-2004) काफी घबराए हुए दिख रहे थे। वाजपेयी के सचिव शक्ति सिन्हा कुछ जरूरी फाइलें लेकर वाजपेयी के पास आ रहे थे।
उधर, पोखरण में मौसम विभाग ने बताया कि सब कुछ ठीक है। ठीक 3:45 बजे मॉनिटर पर लाल बत्ती जली और कुछ ही सेकंड में तीनों मॉनिटरों पर चकाचौंध रोशनी दिखने लगी। अचानक सारी तस्वीरें फ़्रीज़ हो गईं, जिससे पता चला कि शाफ्ट के अंदर लगे कैमरे विस्फोट से नष्ट हो गए हैं। पृथ्वी के अंदर का तापमान लाखों डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया।
‘ताजमहल’ शाफ्ट में विस्फोट से हॉकी के मैदान के आकार की रेत हवा में उड़ गई। डीआरडीओ के कर्नल उमंग कपूर, जो उस वक्त हेलीकॉप्टर से उड़ान भर रहे थे, उन्होंने भी धूल का गुबार उठता देखा।
नीचे वैज्ञानिकों को अपने पैरों तले की ज़मीन हिलती हुई महसूस हुई। वहां और देश भर में दर्जनों भूकंपमापी यंत्रों की सुइयां तेजी से हिलीं। वैज्ञानिक अपने बंकरों से निकलकर बाहर की ओर भागे ताकि वे रेत की दीवार के उठने और गिरने का अविस्मरणीय दृश्य अपनी आँखों से देख सकें।
सुरक्षित दूरी से ये दृश्य देख रहे सैकड़ों सैनिकों ने रेत का गुबार उठते ही ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए। वहां मौजूद वैज्ञानिक के संथानम ने बीबीसी को बताया, ”पूरा दृश्य देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे।”
कलाम ने कहा, “हमने दुनिया की परमाणु शक्तियों का दबदबा ख़त्म कर दिया है, अब एक अरब लोगों के हमारे देश को कोई नहीं बता सकता कि उसे क्या करना है, अब हम तय करेंगे कि हमें क्या करना है।” उधर, प्रधानमंत्री आवास में फोन के पास बैठे ब्रजेश मिश्रा ने पहली घंटी बजते ही फोन उठा लिया। उन्हें रिसीवर पर कलाम की कांपती आवाज सुनाई दी, ‘सर, वी हैव डन इट।’ मिश्रा ने फोन पर ही चिल्लाकर कहा, ‘गॉड ब्लेस यू।’
बाद में वाजपेयी ने कहा, “उस क्षण का वर्णन कर पाना मुश्किल है, लेकिन हमें अत्यंत ख़ुशी और पूर्णता का एहसास हुआ।“
शक्ति सिन्हा, जो बाद में अटल बिहारी वाजपेयी के सचिव बने, ने अपनी पुस्तक ‘वाजपेयी द इयर्स दैट चेंज्ड इंडिया’ में लिखा है कि, ”वाजपेयी कैबिनेट के चार मंत्री, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह, खाने वाजपेयी के आवास पर डायनिंग टेबिल के चारों ओर बैठे हुए थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी सोफे पर बैठे गहरी सोच में डूबे हुए थे, कोई किसी से बात नहीं कर रहा था।
सिन्हा लिखते हैं, ”वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी, लेकिन किसी ने भी उछलकर किसी को गले नहीं लगाया या किसी की पीठ नहीं थपथपाई, हालांकि कमरे में मौजूद लगभग सभी लोगों की आंखों में आंसू थे। ‘काफ़ी देर के बाद वाजपेयी के चेहरे पर मुस्कान आई और तनाव दूर होने के बाद उन्होंने एक ज़ोर का ठहाका भी लगाया।’
बाद में जब वाजपेयी घर से बाहर निकले तो मीडिया के सभी बड़े पत्रकार लॉन में मौजूद थे। वाजपेयी के मंच पर पहुंचने से कुछ सेकंड पहले प्रमोद महाजन ने उस पर भारतीय तिरंगा झंडा रख दिया था। इस मौके पर दी जाने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस की तैयारी भी जसवन्त सिंह ने काफी पहले ही कर ली थी। वाजपेयी ने अंतिम समय में उस बयान में संशोधन किया।
अमेरिका ऐसे ही नहीं हराया, अटल सरकार ने पूरे कार्यक्रम को इतना गुप्त रखा था कि इसके फूटने की संभावना नगण्य थी। यहाँ तक की, तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को भी इसके बारे में कुछ पता नहीं था।
फर्नांडिस को पीएम वाजपेयी की कलाम और तत्कालीन BARC प्रमुख चिदंबरम से मुलाकात के बारे में झूठ बोला गया था। जब भारत ने दूसरा परमाणु परीक्षण करने का निर्णय लिया तो इसकी जानकारी केवल लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, प्रमोद महाजन, जसवन्त सिंह और यशवन्त सिन्हा को ही थी, कैबिनेट के बाकी सदस्यों को इसकी जानकारी नहीं थी।
अमेरिकी सीनेटर रिचर्ड शेल्बी (Richard Shelby) ने CIA की विफलता पर खुलकर अपना गुस्सा व्यक्त किया। उन्होंने कहा, कि यह CIA के इतिहास की सबसे बड़ी विफलता है। शेल्बी ने कहा, ‘इस बात का एहसास न होना कि भारत परमाणु परीक्षण कर रहा है, पिछले 10 वर्षों में सीआई की सबसे बड़ी विफलता है।’ अमेरिका का गुस्सा यहीं शांत नहीं हुआ है, उसने प्रतिबंधों की घोषणा की।
हालाँकि, भारत ने कहा कि उसका परमाणु परीक्षण किसी के लिए खतरा नहीं है बल्कि शांति सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम है।
DRDO प्रमुख एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा, ‘हमने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परमाणु परीक्षण किया है।’ उन्होंने दुनिया को भारतीय इतिहास और परंपरा की याद दिलाई और कहा- पिछले 2500 वर्षों में हमने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है, न ही किसी दूसरे के क्षेत्र पर अतिक्रमण किया है।