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रॉ का ऑपरेशन कहुटा क्या है, Operation Kahuta History in Hindi, न्यूक्लीयर प्रोग्राम वाले वैज्ञानिक की पहचान, जब मोरारजी देसाई पाकिस्तान के बड़े भाई बनने को तैयार थे, ‘…तो शायद पाकिस्तान परमाणु बम नहीं बना पाता
किसी भी देश की सुरक्षा में उसकी इंटेलिजेंस एजेंसी सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन एजेंसियों की हर शैली और काम करने का अंदाज हैरान करने वाला है। इसी प्रकार भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी RAW है, हालाँकि आज़ादी के बाद सबसे पहले भारत के पास इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) के रूप में एक अच्छी ख़ुफ़िया एजेंसी थी।
1968 तक, भारत के आंतरिक और बाहरी खुफिया ऑपरेशन को IB ही चलाती थी, लेकिन तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने सोचा कि हमारी अपनी विदेशी खुफिया एजेंसी होना बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे में 1968 में भारत के मशहूर जासूस रामेश्वर नाथ काओ ने एक ख़ुफ़िया एजेंसी RAW – Research and Analysis Wing की स्थापना की।
1974 में भारत और पाकिस्तान के बीच हथियारों की होड़ शुरू हुई जब भारत के पोखरण परमाणु परीक्षण ने दुनिया को चौंका दिया। भारत की बढ़ती परमाणु क्षमताओं से सावधान होकर, पाकिस्तान ने भी अपने लिए परमाणु हथियार विकसित करना शुरू कर दिया था, जिसमे चीन उसे रणनीतिक सहयोग दे रहा था। इसलिए RAW का पहला फोकस पाकिस्तान और दूसरा चीन था।
1977 में रॉ द्वारा Operation Kahuta लॉन्च किया गया था, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान के गुप्त हथियार कार्यक्रम का पता लगाना और सत्यापन करना था। कहा जाता है कि इजराइल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने भी रॉ के इस अभियान में मदद की थी।
इसके लिए लगभग एक दशक तक ‘रॉ’ ने ‘काउबॉय’ आरएन काओ के नेतृत्व में पाकिस्तान में नेटवर्क बनाने का काम किया था। रॉ की प्राथमिकता पाकिस्तान में इस हथियार कार्यक्रम के लोकेशन का पता लगाना था। 1970 के दशक के ख़त्म होने से पहले ही रॉ ने पाकिस्तान में अपना एक अच्छा नेटवर्क बना लिया था।
पंजाब के कहुटा में एक न्यूक्लियर प्लांट के बारे में कुछ अफवाहें नेटवर्क के लोगों ने सुनी थीं, लेकिन सवाल यह था कि इस खुफिया जानकारी की पुष्टि कैसे की जाए?
किसी न्यूक्लीयर प्लांट में घुसपैठ की कोशिश करना मूर्खतापूर्ण होता और इसमें कई साल लग जाते और तब तक पाकिस्तान के पास परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त फ्यूल उपलब्ध हो जाता। पाकिस्तान सरकार ने इस न्यूक्लीयर प्लांट को इतना छुपाया कि रॉ के पास व्यापक नेटवर्क होने के बावजूद उन्हें केवल अफवाहें ही मिलती रहीं।
इस बीच वैज्ञानिकों ने रॉ को बताया कि अगर कोई व्यक्ति किसी परमाणु कार्यक्रम में भाग लेता है तो उसके शरीर में कई ऐसे रेडियोएक्टिव कण चिपक जाते हैं जिनके जरिए यह पता लगाया जा सकता है कि वह किसी परमाणु कार्यक्रम में शामिल है या नहीं। यह एक तरह से परमाणु कार्यक्रम वाले वैज्ञानिक की पहचान होती है।
एजेंटों को समझ नहीं आ रहा था कि एक वैज्ञानिकों से ऐसा क्या हासिल किया जा सकता है ताकि किसी को शक भी न हो और अपना काम भी हो जाए। रॉ एजेंटों को यह भी पता था कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI भी परमाणु कार्यक्रम में शामिल लोगों पर नजर रख रही हैं, तो उन तक कैसे पहुंचा जाए?
तब इस खुफिया ऑपरेशन में एक अनोखा तरीका अपनाया गया। रॉ एजेंट कहुटा में एक नाई की दुकान का पता लगाने में सफल रहे, जहां पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक अपने बाल कटवाने जाते थे। फिर एक रॉ एजेंट बाल कटवाने के बहाने एक वैज्ञानिक का पीछा करते हुए नाई की दुकान पर गए और चुपके से कुछ गिरे हुए बाल चुरा कर ले आये।
बालों के ये सैंपल को लैब टेस्ट के लिए भारत भेजा गया था। जब टेस्ट रिपोर्ट आई तो सभी बहुत खुश हुए, क्योंकि उस पाकिस्तानी वैज्ञानिक के बालों में रेडिएशन के अंश पाए गए थे। अब सब कुछ स्पष्ट हो गया था, भारत को पता चल गया था कि कहुटा प्लांट एक प्लूटोनियम रिफाइनिंग प्लांट है, जिसे परमाणु बम विकसित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इससे पुष्टि हो गई कि पाकिस्तान वास्तव में परमाणु हथियार बना रहा है।
सत्तर के दशक के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध बहुत खराब हो गए, खासकर पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के बाद, दोनों देशों के बीच का तनाव चरम पर था। 1977 में, जब मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयास किया।
पाकिस्तान में जिया-उल-हक की सरकार ने भी मोरारजी देसाई की सरकार के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने की दिशा में काम किया था। कहा जाता है कि अगर मोरारजी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया होता तो शायद दोनों देशों के रिश्ते कुछ और होते।
मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों को इतना सुधारा था कि पाकिस्तान ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया था। मोरारजी देसाई और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया-उल-हक के बीच दोनों देशों के रिश्ते सुधारने के लिए एक बैठक भी हुई।
उस बैठक में मोरारजी देसाई ने जिया-उल-हक से कहा- कारोबार जारी रहना चाहिए। अगर हम दोनों देशों के हितों के लिए काम करेंगे तो हमारे बीच कोई टकराव नहीं होगा। हमें एक-दूसरे के साथ भाइयों जैसा व्यवहार करना चाहिए। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं, मैं तुमसे कोई लेना-देना नहीं चाहता, मैं बस तुम्हें सब कुछ देना चाहता हूं।”
प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के साथ विश्वास और विश्वास का एक मजबूत रिश्ता स्थापित किया।
इस बीच, पाकिस्तान के परमाणु हथियार हासिल करने को लेकर इजराइल की खुफिया एजेंसी मोसाद भी असुरक्षित थी। इसने रॉ के साथ साझेदारी की थी ताकि वह पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम के बारे में सब कुछ जान सकें। मोसाद पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के जनक और पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान की उत्तर कोरिया के प्योंगयांग यात्रा को लेकर भी चिंतित थी।
उस समय तानाशाह किम जोंग उन के पिता के हाथ में उत्तर कोरिया की कमान थी और वह लगातार परमाणु बम बनाने की कोशिश में लगा हुआ था। उत्तर कोरिया और इजराइल एक दूसरे के कट्टर दुश्मन थे, इसलिए मोसाद को लगा कि अगर उत्तर कोरिया ने पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान की मदद से परमाणु बम बना लिया, तो उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। ऐसे में इजराइल सीधे कहुटा प्लांट पर बमबारी करना चाहता था, लेकिन भारत की तरफ एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई।
रॉ ने एक व्यक्ति के जरिए पूरे न्यूक्लीयर प्लांट का ब्लूप्रिंट भी हासिल कर लिया था लेकिन बदले में वह 1 मिलियन डॉलर की मांग कर रहा था। आज की तारीख में लगभग 7.5 करोड़ रुपये। यह रकम इतनी बड़ी थी कि प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर के बिना इसे मंजूरी नहीं दी जा सकती थी।
लेकिन 1977 के, आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने। आपातकाल के दौरान सरकारी संस्थाओं का खूब दुरुपयोग किया गया, इंदिरा गांधी ने रॉ की मदद से जनता पार्टी के नेताओं की जासूसी कराई थी ऐसा शक मोरारजी देसाई को था।
इसलिए उन्होंने आते ही RAW के बजट में कटौती शुरू कर दी और RAW का बजट 40% कम कर दिया। उन्होंने रॉ के निदेशक आर. एन. काओ से पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप ना करने को कहा। इसके अलावा उन्होंने ब्लू प्रिंट के बदले रकम देने से भी इनकार कर दिया। तब आर. एन. काओ ने यह कहते हुए निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया, कि जब प्रधानमंत्री को ही संस्था पर भरोसा नहीं है तो रॉ की कोई प्रासंगिकता नहीं रह जाती।
इतना ही होता तो ठीक था, लेकिन मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान को भी इसकी जानकारी दे दी। दरअसल, मोरारजी देसाई और पाकिस्तान का राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक अक्सर फोन पर बात होती थी।
उस समय देसाई की ‘यूरिन थेरेपी’ विश्व प्रसिद्ध थी। बी रमन अपने संस्मरणों में कहते हैं कि जनरल जिया-उल-हक मोरारजी देसाई को फोन करके पूछता था,देसाई जी, एक दिन में कितनी बार यूरीन पी जा सकता है? सुबह उठते ही कर लें या दिन में कभी भी ले सकते हैं?
ऐसे ही एक दिन चर्चा के दौरान, मोरारजी देसाई ने बातों-बातों में जिया उल हक़ से कहा, “जनरल साहब, हमें आपके सीक्रेट मिशन के बारे में जानकारी मिली है। अगर ऐसा कुछ हुआ तो तुम जिम्मेदार होंगे, मैं सिर्फ बोलने वाला शख्स नहीं हूं, मै कार्रवाई भी करता हूं।”
जिया उल हक़ इशारे से ही समझ गया कि, देसाई न्यूक्लियर प्लांट की बात कर रहे है। यह जानकर जिया-उल-हक हैरान हो गया और उसने ISI की मदद से रॉ के एजेंट्स का पता लगाया और रॉ के पूरे नेटवर्क को ध्वस्त कर दिया जो 10 साल की कड़ी मेहनत के बाद बना था। साथ ही उसने कहुटा को इजरायली बमबारी से बचाने के लिए अमेरिका के साथ डील की।
भारत की इस गलती का नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान में रॉ नेटवर्क से जुड़े लोगों की चुन-चुनकर हत्या कर दी गई। मोरारजी देसाई की एक गलती से पाकिस्तान ने रॉ का पूरा नेटवर्क तबाह कर दिया।
हालाँकि RAW का यह मिशन पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया लेकिन असल में RAW का यह मिशन न सिर्फ ऐतिहासिक था बल्कि दुनिया के सबसे खतरनाक मिशनों में से एक था। इस ‘ऑपरेशन कहुटा (Operation Kahuta)’ को रॉ के कई शानदार ऑपरेशनों में से एक माना जाता है। यदि इसमें शामिल एजेंट्स के इनपुट का सही उपयोग किया गया होता, तो पाकिस्तान आज तक परमाणु बम नहीं बना पाता।
1981 में इस मामले में नया मोड़ आया जब इंदिरा गांधी दोबारा प्रधानमंत्री बनीं। इराक की एक घटना ने Operation Kahuta को एक बार फिर से जीवनदान दे दिया। 7 जून 1981 को इराक में बन रहे परमाणु रिएक्टर पर इजराइल ने हमला हमला कर उसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया।
इजरायल के इस साहसी मिशन से प्रेरित होकर भारत ने कहुटा में हवाई हमले की योजना बनाई। योजना के मुताबिक, इस काम को इजरायली लड़ाकू विमानों द्वारा अंजाम दिया जाना था, लेकिन उससे पहले ही CIA को इस योजना की भनक लग गई और इस योजना को रोकना पड़ा।
यह योजना 1984 में दोहराई गई, लेकिन अमेरिका के कहने पर पाकिस्तान ने कहुटा की सुरक्षा बढ़ा दी। अब योजना का सर्प्राइज़ फ़ैक्टर ख़त्म हो गया, अंततः ‘ऑपरेशन कहुटा (Operation Kahuta)’ बंद कर दिया गया।