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आपातकाल क्या है इसकी घोषणा कब हुई थी, 1975 Emergency Reason in Hindi, 1975 में किस आधार पर आपातकाल की घोषणा की गई थी, Emergency Declaration in India, आपातकाल के परिणाम
25 जून 1975 भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन था। करीब साढ़े चार दशक पहले देश के लोगों ने रेडियो पर एक घोषणा सुनी। भारत में आपातकाल की घोषणा की खबर पूरे देश में फैल गई। वर्षों बाद भी देश के लोकतंत्र की गरिमामय तस्वीर दुनिया के सामने है। लेकिन, आज भी 25 जून का दिन लोकतंत्र के काले अध्याय के तौर पर दर्ज है।
25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने तक देश में आपातकाल लागू रहा। पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल की घोषणा की।
25 जून और 26 जून की मध्यरात्रि को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर से देश में आपातकाल लगाया गया था। अगली सुबह पूरे देश ने रेडियो पर इंदिराजी की आवाज में संदेश सुना, उन्होंने कहा- ‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। इससे घबराने की कोई बात नहीं है।
आपातकाल की पटकथा 12 जून 1975 को लिखी गई थी। इस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया था। साथ ही उन्हें 6 साल तक किसी भी संवैधानिक पद पर रहने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।
यह याचिका इंदिराजी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़ने वाले राज नारायण ने दायर की थी। इंदिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने चुनाव में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया था।
राजनारायण ने कानून की धारा 123 (7) (ए) के तहत मामला दर्ज कराया। इसके अनुसार, अगर कोई उम्मीदवार या उसका एजेंट अपनी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए किसी राजपत्रित सरकारी अधिकारी की मदद लेता है तो इसे भ्रष्ट आचरण माना जाएगा।
इंदिरा गांधी के मामले में यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने यशपाल कपूर नाम के एक सरकारी अधिकारी को अपना चुनाव अधिकारी नियुक्त किया था। यह भी आरोप था कि स्थानीय अधिकारियों और पुलिस को इंदिरा गांधी की चुनावी सभाओं की व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया था।
कहा जा रहा था कि यशपाल कपूर ने प्रधानमंत्री कार्यालय में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और इस्तीफा देने के बाद वह इंदिरा गांधी के चुनाव अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे।
अंततः 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (7) (ए) के तहत दोषी ठहराया। और उन्हें छह साल तक किसी भी निर्वाचित पद पर रहने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी छह साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ सकती थीं। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकी थीं और विपक्ष उनसे इस्तीफे की मांग कर रहा था।
24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई की। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा कि जब तक मामला कोर्ट में लंबित है तब तक इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं। लेकिन उन्हें संसद में किसी भी चर्चा या विधेयक पर वोट देने का अधिकार नहीं होगा।
इंदिरा गांधी की जीवनी में कैथरीन फ्रैंक लिखती है कि यह फैसला न तो इंदिरा गांधी को और न ही उनके समर्थकों को पसंद आया। क्योंकि, बात ऐसी थी कि वह पद तो संभालेंगी, लेकिन उस पद के अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगी।
अगले दिन यानी 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकार के खिलाफ एक बड़ी रैली निकाली। उस समय देश की जनता में महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर गुस्सा था। जयप्रकाश नारायण सरकार के विरोध में पूरे देश में यात्रा कर रहे थे।
25 जून की सुबह इंदिरा गांधी ने बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से फोन पर बात की। उस समय सिद्धार्थ शंकर दिल्ली के बंग भवन में ठहरे हुए थे, जब उन्होंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी के सचिव आर के धवन थे। उन्होंने रे को बताया कि प्रधानमंत्री ने उन्हें तत्काल 1 सफदरजंग रोड स्थित अपने आवास पर बुलाया है।
जब वह 1 सफदरजंग रोड पहुंचे तो उन्होंने इंदिरा गांधी को अपने स्टडी रूम में बैठे देखा। कमरे में एक टेबल पर बहुत सी फाइलें फैली हुई थीं। दोनों ने बैठकर करीब 2 घंटे तक देश के हालात पर बात की।
प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब ‘द ड्रामेटिक डिकेड’ में इस बात का जिक्र किया है कि सिद्धार्थ शंकर रे ने शाह कमीशन के सामने अपने बयान में कहा था कि जब वह पहुंचे तो इंदिराजी ने उन्हें बताया कि उन्हें कई रिपोर्ट्स मिली हैं। इसमें कहा गया है कि देश पर बहुत बड़ा संकट आने वाला है, हर तरफ अराजकता का माहौल है।
बिहार और गुजरात की विधानसभाएं भंग कर दी गई हैं। विपक्ष का झुकाव सिर्फ आंदोलन की ओर है, इसलिए विपक्ष की मांगों का कोई अंत नहीं है। ऐसे समय में जब देश में कानून का शासन नहीं है, कुछ कठोर कदम उठाने की तत्काल आवश्यकता है।
उसी शाम इंदिरा गांधी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में होने वाली जयप्रकाश नारायण की सभा की खुफिया रिपोर्ट भी दिखाई। रिपोर्ट में कहा गया था कि जयप्रकाश नारायण देश भर में विरोध प्रदर्शन का आह्वान करके समानांतर प्रशासन चलाने की योजना बना रहे हैं। वे अदालतों से लेकर पुलिस और सेना तक सभी से सरकार की अवज्ञा करने के लिए कहेंगे।
आपातकाल की जांच के लिए गठित शाह कमीशन के सामने सिद्धार्थ शंकर रे ने खुलासा किया कि इंदिरा गांधी ने उनसे दो-तीन बार पहले भी कहा था कि भारत को ‘शॉक ट्रीटमेंट’ की जरूरत है। ठीक उसी प्रकार जब कोई बच्चा निश्चल पैदा होता है तो उसे पुनर्जीवित करने के लिए शॉक दिया जाता है। इंदिराजी ने कहा था कि देश में एक बड़ी ताकत पैदा करना जरूरी है।
सवाल उठता है कि इंदिरा गांधी ने इस मुद्दे पर चर्चा के लिए बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे को ही क्यों बुलाया? दरअसल, रे को संवैधानिक मामलों का विशेषज्ञ माना जाता था। दूसरी वजह ये है कि वो इंदिरा गांधी के सबसे करीबी लोगों में से एक थे। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद से सिद्धार्थ बाबू इंदिरा गुट के प्रति वफादार रहे।
इस मामले में इंदिरा गांधी को रे पर कितना भरोसा था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक उन्होंने अपने कानून मंत्री एसआर गोखले से इस बारे में कोई चर्चा नहीं की थी।
दो घंटे चली इस बातचीत में इंदिराजी ने कहा कि मैं अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की हेट लिस्ट में सबसे ऊपर हूं। मुझे डर है कि कहीं CIA की मदद से मेरी सरकार न गिरा दी जाए।
कैथरीन फ्रैंक ने अपनी किताब ‘इंदिरा: द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी’ में लिखा है कि इंदिरा गांधी 1974 से ही जयप्रकाश नारायण पर यह आरोप लगाती रही कि उनके पीछे अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ हैं और वह उनकी आर्थिक मदद भी कर रहे हैं।
इंदिरा गांधी की सारी बातें सुनने के बाद सिद्धार्थ बाबू ने कहा कि उन्हें सोचने के लिए कुछ समय चाहिए, ताकि वे कोई समाधान निकाल सकें। उन्होंने शाम 5 बजे तक का समय मांगा। अपने कमरे में आकर सिद्धार्थ बाबू ने भारतीय संविधान के साथ-साथ अमेरिकी संविधान भी पढ़ा। दोपहर 12 बजे तक वे इसी काम में लगे रहे और शाम साढ़े तीन बजे फिर 1 सफदरजंग रोड पहुंचे।
सिद्धार्थ रे वापस आये और शांति से इंदिरा गांधी को समझाने लगे। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 352 बाहरी और आंतरिक अराजकता के समय आपातकाल लगाने की अनुमति देता है।
रे ने समझाया कि बाहरी और आंतरिक अराजकता कैसे भिन्न होती है। उदाहरण के लिए इंदिराजी को 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान लगाए गए आपातकाल के बारे में समझाया। उन्होंने बताया कि कैसे युद्ध किसी देश के लिए एक बाहरी खतरा है, और देश के अंदर के हालातों को देखते हुए आंतरिक आपातकाल लगाना पड़ेगा।
यह सुनकर इंदिरा गांधी ने कहा कि वह ऐसा करने से पहले इस मामले को कैबिनेट के सामने नहीं लाना चाहतीं। सिद्धार्थ रे ने कहा, इसके लिए हमें राष्ट्रपति को बताना होगा कि हमारे पास कैबिनेट बैठक बुलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं है।
25 जून की शाम: इंदिरा गांधी ने कुछ ही मिनटों में राष्ट्रपति को आपातकाल लगाने के लिए मना लिया।
इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे शाम 5.30 बजे राष्ट्रपति आवास पहुंचे। तब देश के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद थे। इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ बाबू ने राष्ट्रपति को पूरी बात बताई। राष्ट्रपति ने कहा कि आप मुझे आपातकालीन दस्तावेज भेजें। उसके बाद इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे वहां से 1 सफदरजंग रोड लौट आये।
सिद्धार्थ बाबू ने आते ही तुरंत इंदिरा गांधी के सचिव पीएन धर को इसकी जानकारी दी। धर ने तुरंत अपने टाइपिस्ट को बुलाया और आपातकाल की घोषणा के दस्तावेज तैयार करवाए। इन दस्तावेजों को लेकर धर खुद राष्ट्रपति भवन पहुंचे। अब तक काफी रात हो चुकी थी, इसलिए इंदिरा गांधी ने निर्देश दिया कि सुबह 5 बजे कैबिनेट को यह बात बताई जाए।
1 सफदरजंग रोड पर, सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा गांधी को अपना सुबह का भाषण लिखने में मदद करना शुरू किया। दूसरे कमरे में आरके धवन, संजय गांधी और संसदीय राज्य मंत्री ओम मेहता सुबह गिरफ्तार होने वाले विपक्षी नेताओं की सूची तैयार कर रहे थे।
वहाँ यह भी योजना बन रही थी कि सुबह अखबारों और अदालत की बिजली कैसे काटी जायेगी। जब तक इंदिरा गांधी अपना भाषण पूरा कर पातीं, तब तक सुबह के 3 बज चुके थे। सिद्धार्थ शंकर रे अभी भी वहीं थे, भाषण पूरा करने के बाद उन्होंने इंदिराजी से विदा ली।
रे बाहर आ रहे थे तभी उनकी टक्कर ओम मेहता से हो गई। ओम मेहता ने उन्हें बताया कि अगले दिन दिल्ली में अखबारों की बिजली काटने और देश भर की अदालतों को बंद रखने की व्यवस्था की गई है। यह सुनकर रे हैरान रह गए और उन्होंने विरोध करते हुए कहा कि ऐसा करना मूर्खतापूर्ण होगा।
हमने इस बारे में कोई भी बात नहीं की है। संविधान का आपातकाल इस तरह से लागू नहीं किया जा सकता। रे फिर आर के धवन के पास पहुंचे और कहा कि वह इंदिरा गांधी से मिलना चाहते हैं। धवन कहते हैं कि वह सोने चली गई है, लेकिन रे ने जोर देकर कहा कि उनसे मिलना मेरे लिए महत्वपूर्ण है। जब धवन इंदिराजी को बुलाने गए, तब ओम मेहता ने रे को बताया कि संजय गांधी ने अखबारों की बिजली काटने और अदालतें बंद करने का विचार दिया हैं।
यहाँ, कुछ झिझक के बाद धवन इंदिरा गांधी के पास गए और उन्हें बाहर ले आए। इंदिराजी की आंखें लाल थीं, जाहिर था कि वह रो रही थीं। रे ने इंदिरा गांधी को प्रेस की बिजली काटने और अदालतें बंद करने के बारे में बताया।
इस पर इंदिराजी ने कहा कि किसी भी अखबार की बिजली नहीं काटी जाएगी और कोई भी अदालत बंद नहीं की जाएगी। इंदिरा गांधी से यह बात सुनने के बाद रे वहां से चले गए जो बाद में झूठ साबित हुआ।
दिल्ली में अखबारों की बिजली काट दी गई। 26 जून की सुबह, केवल हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन अखबार ही निकल पाए, क्योंकि उनकी प्रेस का बिजली कनेक्शन दिल्ली नगर पालिका के बजाय नई दिल्ली से था।
भारत में 25 जून 1975 से 19 जनवरी 1977 तक आपातकाल लागू रहा। मेनटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट यानी मीसा अधिनियम और डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट के तहत करीब एक लाख से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया गया। लेकिन अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि देश में किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? इंदिरा गांधी ने खुद कहा था कि जब मैंने आपातकाल लगाया तो एक कुत्ता भी नहीं भौंका।
कुलदीप नैय्यर अपनी आत्मकथा ‘क्या भूलू क्या याद करूं’ में लिखते हैं कि आम लोगों को यह भी नहीं पता था कि आपातकाल क्या होता है। लोग सदमे और दुविधा में थे, सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया या नजरबंद कर दिया गया।
विरोध करने वाले नेताओं में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, जॉर्ज फर्नांडिस, चंद्रशेखर जैसे शीर्ष विपक्षी नेता शामिल थे। 25 जून की आधी रात को ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को गिरफ्तार करने के आदेश दिये गये।
आपातकाल के दौरान जयपुर की महारानी और ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया पर पैसों की हेरा-फेरी का आरोप लगाकर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। 65 साल की गायत्री देवी को विदेशी मुद्रा और तस्करी के मामले में गिरफ्तार किया गया था। भारत विरोधी बताकर 26 संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसमें RSS से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी तक सभी शामिल थे।
प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। प्रत्येक समाचार पत्र के कार्यालय में एक सेंसर अधिकारी तैनात किया गया था। उसके देखने के बाद ही कोई भी खबर प्रकाशित की जाती थी। सरकार विरोधी खबरें छापने पर गिरफ्तारी हो जाती थी। 23 जनवरी 1977 को लोकसभा चुनाव की घोषणा होने तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहा।
इस दौरान सरकार के पास देश के लिए ख़तरा माने जाने वाले लोगों को गिरफ़्तार करने का अधिकार होते हैं। उदाहरण के लिए, 1975-1977 की अवधि के दौरान, लगभग एक लाख ग्यारह हजार लोगों को Preventive detention laws के तहत हिरासत में लिया गया और गिरफ्तार किया गया। यह रिपोर्ट बाद में शाह आयोग द्वारा प्रकाशित की गई।
इस अवधि के दौरान, पुलिस और अन्य रक्षा बलों को बहुत सारे अधिकार और शक्तियाँ दी गईं। यही कारण है कि हिरासत में यातना और मौत की घटनाएं हुईं। तीसरे आपातकाल के दौरान गरीब लोगों के मनमाने विस्थापन और जबरन नसबंदी के मामले भी सामने आए।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल के दौरान चुनाव स्थगित कर दिए गए, नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए और मनमानी कार्रवाई की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास का सबसे अंधकारमय काल’ कहा।
कहा जाता है कि सरकार ने पूरे देश को एक बड़ी जेल में तब्दील कर दिया था। आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार स्थगित कर दिये गये। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2011 में आपातकाल के दौरान जीने का अधिकार लेने के लिए अपनी गलती मानी थी। 2 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान कोर्ट ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों का भी हनन किया था।
जयप्रकाश नारायण की लड़ाई निर्णायक दौर में पहुंची। इंदिरा जी को गद्दी छोड़नी पड़ी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन हुआ और 1977 में फिर आम चुनाव हुए। 1977 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। इंदिराजी खुद रायबरेली से चुनाव हार गईं और कांग्रेस 153 सीटों पर सिमट गई। 23 मार्च 1977 को अस्सी साल की उम्र में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। आज़ादी के तीस साल बाद बनी यह पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी।
भारत में आपातकाल की स्थिति शासन की एक अवधि है जिसे किसी विशेष संकट की स्थिति में भारत के राष्ट्रपति द्वारा घोषित किया जा सकता है। कैबिनेट की सलाह पर राष्ट्रपति संविधान के कई प्रावधानों को निरस्त कर सकते हैं, जो भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देते हैं। राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा 25 जून 1975 को हुई थी।
1975 में, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 352 का उपयोग करते हुए और देश में आंतरिक अशांति को आपातकाल घोषित करने का एकमात्र कारण बताते हुए राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की।
भारत में 3 बार राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया गया है – 1962 (चीन युद्ध), 1971 (पाकिस्तान युद्ध), और 1975 (आंतरिक अशांति)। राष्ट्रीय आपातकाल तब घोषित किया जा सकता है जब राष्ट्रपति को आंतरिक और बाहरी स्रोतों से या आर्थिक संकट की स्थितियों से राष्ट्र के लिए खतरा महसूस होता है।