पता:
- विरार, मुंबई,
महाराष्ट्र, भारत,
Lal Bahadur Shastri Jivan Parichay: लाल बहादुर शास्त्री जी का जीवन सरलता, सादगी, और ईमानदारी का प्रतीक था। उनका प्रधानमंत्री बनने तक का सफर और उनकी राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना अद्वितीय थी। उन्होंने अपने जीवन में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए, जिनसे देश की दिशा और दशा बदल गई।
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनकी नेतृत्व क्षमता और साहस ने देश को मजबूती दी। उन्होंने देश के आत्म-सम्मान और आत्म-निर्भरता को बढ़ावा दिया, जो उनके नेतृत्व के प्रमुख गुण थे। उनकी आकस्मिक और रहस्यमय मृत्यु ने देश को गहरे शोक में डाल दिया, लेकिन उनके विचार और कार्य आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं।
लाल बहादुर शास्त्री जी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सरलता और सच्चाई के साथ भी महान ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है।
‘जय जवान जय किसान’ का नारा बुलंद करने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी की गिनती देश के उन चुनिंदा नेताओं में होती है, जिन्होंने हमेशा राष्ट्रहित को सर्वोपरि माना। सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी ने अपने जीवनकाल में राजनीति में ऐसे आदर्श स्थापित किये जो आज भी देश के करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
छोटे कद के नेता होने के बावजूद उन्होंने जीवन में उच्च आदर्शों का पालन किया और देश की भावी पीढ़ी के हित को ध्यान में रखते हुए कई महत्वपूर्ण कार्य शुरू किये। चाहे भारत-पाकिस्तान युद्ध हो या देश के समक्ष उत्पन्न खाद्यान्न संकट शास्त्री जी ने विभिन्न परिस्थितियों में अपने कुशल नेतृत्व का परिचय दिया।
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय (वाराणसी), उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ। उनकी माता रामदुलारी देवी धार्मिक प्रवृति की महिला थी। लाल बहादुर शास्त्री अपने भाई-बहनों में दूसरे नंबर की संतान थे। बचपन में उन्हें घर में ‘नहे’ कहकर बुलाया जाता था।
लाल बहादुर शास्त्री जब केवल 2 वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। उनके पिता की मृत्यु के बाद, उनकी माँ उन्हें मिर्ज़ापुर में अपने मायके गईं और बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देने लगीं।
जन्म की तारीख और समय | 2 अक्तूबर 1904, मुग़लसराय |
मृत्यु की जगह और तारीख | 11 जनवरी 1966, ताशकंद, सोवियत संघ |
मृत्यु के समय उम्र | 61 साल |
राजनैतिक दल | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पेशा (Profession) | राजनेता, स्वतन्त्रता सेनानी |
जीवन संगी | ललिता शास्त्री |
धर्म (Religion) | हिन्दू धर्म |
लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी प्राथमिक शिक्षा मिर्ज़ापुर में और माध्यमिक शिक्षा हरिश्चंद्र हाई स्कूल से की। शास्त्रीजी की उच्च शिक्षा काशी विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ से संस्कृत की डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव को हटा दिया और शास्त्री नाम अपना लिया। शास्त्री जी बचपन से ही जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे।
शास्त्रीजी ने 1928 में ललिता शास्त्री से शादी की और उनके कुल 6 बच्चे हुए। अपनी शादी में उन्होंने किसी भी तरह का दहेज नहीं लिया। अपना जीवन देश की सेवा में समर्पित करते हुए उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया।
शास्त्री जी की ईमानदारी, मेहनत और सादगी के कई सारे किस्से हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका जीवन इतना सरल था कि देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके पास न तो अपना घर था और न ही अपनी कार।
ऐसा नहीं है कि पहले सरकारी पद पर रहते हुए उन्हें वेतन नहीं मिलता था। लेकिन उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक कार्यों पर खर्च होता था। अगर कोई उम्मीद लेकर दरवाजे पर आता है तो वह कभी खाली हाथ नहीं जाता। उनके घर के दरवाजे जरूरतमंदों के लिए हमेशा खुले रहते थे।
1964 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने एक कार खरीदने के बारे में सोचा। हालाँकि ये मांग उनके बच्चों की भी थी। उन्हें लगता था कि उनके पिता देश के प्रधानमंत्री हैं और उनके पास घर पर अपनी कार तक नहीं है।
उन्होंने एक कार खरीदने के बारे में सोचा लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वह डाउन पेमेंट करके कार खरीद सके। उस समय उनके बैंक खाते में केवल 7 हजार रुपये थे और कार की कीमत 12 हजार रुपये थी। लेकिन उन्होंने कार खरीदने का फैसला कर लिया था।
इसलिए उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से कार लोन के लिए आवेदन किया। उन्हें 5,000 रुपए का लोन चाहिए था। उस समय भी उन्होंने उतना ही लोन लिया जितना किसी अन्य आम नागरिक को मिल सकता था। उनका सिद्धांत स्पष्ट था, प्रधानमंत्री होने के नाते उनके पास कोई विशेषाधिकार नहीं है। उन्हें भी अन्य नागरिकों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं।
1965 में, उन्होंने अपने जीवन की पहली कार खरीदी और ठीक एक साल बाद 1966 में अचानक उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद 24 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं। उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री को बैंक ऋण माफ करने की पेशकश की, लेकिन ललिता जी ने साफ इनकार कर दिया।
ललिता अगले चार वर्षों तक कार ऋण की किस्तें नियमित रूप से चुकाती रहीं। लाल बहादुर शास्त्री की वह ऐतिहासिक कार आज भी उनकी ईमानदारी और अच्छाई की यादगार मिसाल के तौर पर दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, लाला लाजपत राय ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक रूप से समर्थन देना था, शास्त्री जी भी उनमें से थे। उन्हें घर चलाने के लिए सोसायटी से 50 रुपये प्रति माह मिलते थे।
एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्हें ये 50 रुपये समय पर मिलते हैं और क्या वे इससे अपना गुजारा कर पा रहे हैं? इस पर उनकी पत्नी ने जवाब दिया कि ये पैसे उनके लिए काफी हैं। वह प्रति माह केवल 40 रुपये खर्च कर रही है और 10 रुपये बचा रही है।
इसके बाद शास्त्रीजी ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी को पत्र लिखकर कहा कि उनका परिवार 40 रुपये में गुजारा कर रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता 40 रुपये की जाए और बाकी 10 रुपये किसी अन्य जरूरतमंद व्यक्ति को दे दिए जाएं।
प्रधानमंत्री होने के बावजूद शास्त्रीजी ने अपने बेटे के कॉलेज के एडमिशन फॉर्म में खुद को प्रधानमंत्री न लिखकर लिखा कि वह एक सरकारी कर्मचारी हैं। उन्होंने कभी भी अपने पद का इस्तेमाल अपने निजी जीवन या परिवार के लिए नहीं किया।
उनके बेटे ने एक आम आदमी के बेटे की तरह रोजगार कार्यालय में नौकरी के लिए अपना रजिस्ट्रेशन कराया था। जब उनके बेटे को गलत तरीके से प्रमोशन दे दिया गया तो शास्त्रीजी ने खुद ही उसका प्रमोशन रद्द कर दिया।
जब शास्त्री 3 जनवरी, 1966 को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान से मिलने के लिए ताशकंद के लिए रवाना हुए, तो बहुत ठंड थी और वह अपने साथ केवल खादी का ऊनी कोट ले गए थे।
ताशकंद में कोसिगिन को एहसास हुआ कि शास्त्री जी ने जो कोट पहना था वह उन्हें ठंडी हवाओं से बचाने के लिए पर्याप्त गर्म नहीं था। वह शास्त्री को एक ओवरकोट देना चाहते थे लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कोट कैसे दिया जाए। बाद में एक समारोह में उन्होंने शास्त्री को एक रूसी कोट उपहार में दिया।
कोसिगिन को उम्मीद थी कि शास्त्री ताशकंद में ये कोट जरूर पहनेंगे। अगली सुबह रूसी प्रधान मंत्री ने देखा कि शास्त्री दिल्ली से लाया गया खादी कोट पहने हुए थे। लेखकों के अनुसार, कोसिगिन ने भारतीय प्रधान मंत्री से हिचकिचाते हुए पूछा कि क्या उन्हें उनके द्वारा दिया गया ओवरकोट पसंद नहीं आया।
शास्त्री जी ने कहा, ‘वास्तव में यह मेरे लिए गर्म और बहुत आरामदायक है। परन्तु मैंने इसे अपने एक नौकर को दे दिया, जो कड़ाके की ठंड में पहनने के लिए अच्छा ऊनी कोट नहीं लाया था। मैं भविष्य में ठंडे देशों की यात्राओं पर उस ओवरकोट का उपयोग करूंगा जो आपने मुझे उपहार में दिया है।
कोसिगिन ने शास्त्री और खान के सम्मान में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में इस घटना का जिक्र किया। उन्होंने कहा, ‘हम कम्युनिस्ट हैं, लेकिन शास्त्री सुपर कम्युनिस्ट हैं।
पहला भारत-पाक युद्ध 1947 में हुआ, जिसे प्रथम कश्मीर युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। यह युद्ध अक्टूबर 1947 में हुआ था। जब पाकिस्तानी सेना के समर्थन में हजारों पाकिस्तानी कबायली लड़ाकों ने कश्मीर में प्रवेश किया और हमला कर राज्य के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया। तब कश्मीर के राजा ने भारत सरकार से मदद मांगी और कश्मीर को भारत में मिला लिया। तब भारतीय सेना ने वहां डेरा डाला और डेढ़ साल बाद 1 जनवरी 1949 की रात 23:59 बजे वहां पर औपचारिक युद्धविराम की घोषणा की गई।
इस युद्ध में भारत को कश्मीर का दो-तिहाई हिस्सा यानी कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख मिला, जबकि पाकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई हिस्से और गिलगित-बाल्टिस्तान पर कब्जा कर लिया, जिसे पीओके (Pak Occupied Kashmir) के नाम से जाना जाता है।
1950-51 के दौरान तिब्बत पर कब्ज़ा करने और बाद में तिब्बती धार्मिक नेता दलाई लामा को भारत में शरण देने के बाद, तत्कालीन चीनी शासक चाउ एन लाई ने मैकमोहन रेखा को मानने से इनकार कर दिया और पूरे हिमालय की तलहटी पर कब्ज़ा कर लिया। यहां तक कि तिब्बत की स्वायत्तता पर भी सवाल उठाया।
सब कुछ चीन के नियंत्रण में था, ऐसी उनकी सोच थी। 1954 में भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन के सामने शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पाँच सिद्धांत प्रस्तुत किये और हिंदी चीनी भाई भाई का नारा दिया।
पंडित नेहरू का 1953 का पंचशील सिद्धांत: 1953-54 में चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए पंडित नेहरू द्वारा दिए गए पंचशील सिद्धांत के अनुसार:
27 मई 1964 वह तारीख थी जब भारत ने अपने पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को हमेशा के लिए खो दिया। उनकी अचानक मौत से पूरा देश सदमे में था। भारत में मातम का माहौल तो था ही, साथ में भारत को आजादी मिले अभी कुछ ही साल हुए थे, ऊपर से भारत 1962 में चीन से युद्ध भी हार गया था।
उस दौर की तमाम किताबों, नेहरू के दोस्तों, समकालीन नेताओं और अधिकारियों की किताबों और संस्मरणों से जो बात साफ तौर पर सामने आती है, वह यह है कि उनकी मौत का असली कारण चीन की गद्दारी थी।
दरअसल, उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, लेकिन इसे चीन से जोड़ा जाता है क्योंकि चीन द्वारा भारत पर हमला करने के बाद उनकी तबीयत बिगड़ने लगी थी। 1962 में जब भारत चीन से युद्ध हार गया तो प्रधानमंत्री नेहरू का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। कारण यह था कि वह इस युद्ध में भारत की पराजय सहन नहीं कर पा रहे थे। शायद अंदर ही अंदर नेहरू इसके लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मानते थे।
20 नवंबर 1962 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए चीन से मिली सैन्य हार को स्वीकार किया। उन्होंने स्वीकार किया कि वालोंग, सीला और बोमडिला इलाकों में भारतीय सेना की हार हुई है।
इतना ही नहीं, बल्कि पंडित नेहरू ने संसद में दुखी मन से कहा था, “हम आधुनिक दुनिया की वास्तविकता से दूर हो गए थे और एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था।” नेहरू की बातों से साफ जाहिर था कि उन्होंने चीन को समझने में गलती की, जिसका खामियाजा देश को युद्ध हारकर भुगतना पड़ा।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आकस्मिक मृत्यु के बाद, उन्हें 9 जून 1964 को भारत के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। इस दौरान देश विभिन्न मोर्चों पर विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा था। पूंजीवादी शक्तियां देश को तोड़ने की तैयारी कर रही थीं, जबकि पड़ोसी दुश्मन देश हिंदुस्तान पर हमला करने की योजना बना रहे थे।
इन वर्षों के दौरान देश को खाद्यान्न, गरीबी और अन्य मोर्चों पर आंतरिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। शास्त्रीजी ने इन समस्याओं का साहसपूर्वक सामना करके न केवल अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया बल्कि समस्याओं का स्थायी समाधान भी निकाला।
वह ऐसे प्रधान मंत्री थे जिनके कहने पर लाखों भारतीयों ने दिन में एक वक्त का खाना छोड़ दिया था। 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध नहीं रोका तो मैं आपको लाल गेहूं भेजना बंद कर दूंगा।
उस समय भारत गेहूँ उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था। अमेरिकी राष्ट्रपति के इस धमकी से शास्त्री को बड़ा झटका लगा। उन्होंने देशवासियों से अपील की कि हम एक वक्त का खाना नहीं खाएंगे।इससे अमेरिका से आने वाले गेहूं की जरूरत हमें नहीं पड़ेगी। उस समय शास्त्री जी की अपील पर लाखों भारतीयों ने एक वक्त का खाना खाना बंद कर दिया था।
देशवासियों से अपील करने से पहले शास्त्री जी ने और उनके परिवार ने अपने घर में एक वक्त का खाना नहीं खाया, क्योंकि वे देखना चाहते थे कि क्या उनके बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देखा कि वे और उनके बच्चे एक वक्त बिना खाना खाए रह सकते हैं तब उन्होंने देशवासियों से अपील की।
भारत अभी भी 1962 के युद्ध में चीन के खिलाफ अपनी हार से उबर रहा था। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और लाल बहादुर शास्त्री देश के नये प्रधानमंत्री थे। पाकिस्तान को लगा कि अगर तीनतरफा युद्ध हुआ तो कद में छोटे दिखने वाले शास्त्री कमजोर हो जाएंगे और स्थिति को ठीक से संभाल नहीं पाएंगे। उसे कश्मीर पर कब्ज़ा करने का एक बड़ा मौका नज़र आया।
अप्रैल 1965 में पाकिस्तान ने कच्छ के बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। उसके ऑपरेशन को डेजर्ट हॉक कहा जाता था। भारत के खिलाफ युद्ध शुरू करने की दिशा में यह पहला कदम था। अगस्त माह आते-आते पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर में ऑपरेशन जिब्राल्टर नाम से एक सैन्य अभियान शुरू कर दिया। इसका मकसद एलओसी पार कश्मीर की मुस्लिम आबादी को सरकार के खिलाफ भड़काना था।
पाकिस्तानी सेना के आकाओं को लगा कि इसे स्थानीय कश्मीरियों के विद्रोह के रूप में देखा जाएगा और पाकिस्तान को इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर करने का मौका मिलेगा। यह कोडनेम भी पाकिस्तान द्वारा पुर्तगाल और स्पेन पर मुस्लिम आक्रमण से लिया गया था जिसे जिब्राल्टर पोर्ट से शुरू किया गया था।
लाल बहादुर शास्त्री जी ने सेना को खुली छूट दे दी। 28 अगस्त को भारत ने हाजीपीर पर कब्ज़ा कर लिया। इसी बीच पाकिस्तान ने एक सोची-समझी साजिश के तहत अपना तीसरा ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम लॉन्च किया। पाकिस्तान को लगा कि ऐसे चौतरफा हमले से भारत डर जाएगा, लेकिन उसने शास्त्री को समझने में भूल कर दी।
1 सितंबर को पाकिस्तानी सेना अखनूर ब्रिज तक पहुंच गई थी लेकिन अब बारी थी भारत की। 6 सितम्बर को भारतीय सेना ने पंजाब फ्रंट पर मोर्चा खोल दिया और सेना लाहौर की ओर बढ़ गयी।
24 घंटे के अंदर भारतीय सेना सियालकोट सेक्टर में तेजी से आगे बढ़ रही थी। पाकिस्तानी सेना खेमकरण की ओर बढ़ी और यहां भीषण टैंक युद्ध हुआ। भारतीय सेना को हावी होता देखकर पाकिस्तान डर गया था। यहां एक तरफ युद्ध चल रहा था और दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र में हंगामा बढ़ गया था।
स्थिति बहुत ख़राब हो गयी थी। ऐसे में प्रधानमंत्री और उनके परिवार के सदस्यों को भी विशेष सुरक्षा में रखा गया। शास्त्रीजी के बेटे अनिल शास्त्री ने एक इंटरव्यू में कहा कि परिवार की सुरक्षा के लिए प्रधानमंत्री आवास पर बंकर बनाया गया था। उस समय सुरक्षा के कारण शास्त्री जी का पूरा परिवार राष्ट्रपति भवन में सोने जाता था। तत्कालीन राष्ट्रपति राधाकृष्णन का मानना था कि राष्ट्रपति भवन की दीवारें अधिक मजबूत हैं।
4 सितंबर 1965 को, सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 209 (1965) के माध्यम से युद्धविराम का आह्वान किया और दोनों देशों की सरकारों से संयुक्त राष्ट्र की टीम (UNMOGIP) के साथ सहयोग करने के लिए कहा, जिसे 16 साल पहले युद्धविराम की निगरानी का काम सौंपा गया था।
दो दिन बाद, सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 210 को अपनाया, जिसमें महासचिव से हर संभव प्रयास करने का आग्रह किया गया। इसके द्वारा संयुक्त राष्ट्र चाहता था कि उसका सैन्य अवलोकन समूह युद्ध को रोक दे। महासचिव ने 7 से 16 सितम्बर तक उपमहाद्वीप का दौरा किया।
16 सितंबर को सुरक्षा परिषद को दी अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि दोनों पक्षों ने युद्धविराम पर चर्चा की है लेकिन दोनों शर्तें लगा रहे हैं और ऐसी परिस्थितियों में यह मुश्किल होता जा रहा है। इसके बाद महासचिव ने सुरक्षा परिषद को अपने स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया।
आख़िरकार 20 सितंबर को परिषद ने प्रस्ताव 211 पारित किया जिसके तहत 22 सितंबर 1965 को सुबह 7 बजे से युद्धविराम की घोषणा की गई। साथ ही दोनों देशों के सैनिक 5 अगस्त से पहले पीछे हटकर अपनी पिछली स्थिति में चले जाएंगे।
जनवरी 1966 में, भारत और पाकिस्तान के नेताओं ने ताशकंद (तत्कालीन सोवियत संघ) में मुलाकात की और एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। 10 जनवरी, 1966 को पाकिस्तान के साथ ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के बमुश्किल 12 घंटे बाद, 11 जनवरी को सुबह 1:32 बजे उनकी मृत्यु हो गई।
उनकी मृत्यु बहुत रहस्यमय परिस्थितियों में हुई और इसे लेकर दो थ्योरी सामने आयी। एक का कहना है कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा और दूसरे के अनुसार उन्हें जहर देकर मारा गया था।
क्या उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई या जहर से? ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री से जुड़ा एक रहस्य जो कभी नहीं खुला।
‘मैं अपने कमरे में सो रहा था तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। गेट पर एक महिला थी। उसने कहा- योर प्राइम मिनिस्टर इज डाइंग। मैं शास्त्री जी के कमरे की तरफ भागा तो वहां बरामदे में सोवियत संघ के पीएम अलेक्सी कोसिगिन खड़े थे। जैसे ही उसने मुझे देखा तो उसने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा दिए। अंदर शास्त्रीजी के आसपास डॉक्टरों की एक टीम खड़ी थी।’
यह 11 जनवरी 1966 को रात करीब 1.30 बजे कुलदीप नैय्यर की आंखों देखी थी। वह तब प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार थे और 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के लाहौर तक झंडा फहराने वाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ ताशकंद पहुंचे थे। यह पूर्व सोवियत शहर आज उज्बेकिस्तान की राजधानी है।
यहां एक दिन पहले ही शास्त्री जी ने सोवियत संघ की मेजबानी में पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खान के साथ ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। समझौते में, पाकिस्तान ने भारत के पास मौजूद ज़मीन छोड़ दी और बदले में भारत को लाहौर तक पहुँचे अपने सैनिकों को वापस बुलाना पड़ा।
दूसरी ओर, जब नैय्यर शास्त्रीजी के कमरे में पहुंचे, तब तक यह तय हो गया था कि भारत के दूसरे प्रधान मंत्री अब जीवित नहीं थे। नैय्यर के मुताबिक, उनका शव बिस्तर पर था। चप्पलें करीने से रखी हुई थीं, लेकिन उनका पानी का थर्मस ड्रेसिंग टेबल पर लुढ़क रहा था। यह स्पष्ट था कि बेचैन शास्त्रीजी ने पानी पीने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
समझौते पर 10 जनवरी को दोपहर में ताशकंद में हस्ताक्षर किए गए थे। इसके बाद सोवियत संघ ने होटल ताशकंद में एक पार्टी का आयोजन किया था। शास्त्री जी कुछ देर वहां रुके और फिर रात करीब 10 बजे अपने तीन सहायकों के साथ अपने कमरे में लौट आये। शास्त्री जी के कमरे में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि शास्त्री जी को अयूब खान के निमंत्रण पर इस्लामाबाद जाना चाहिए या नहीं।
लेकिन समझौते के 12 घंटे बाद उनकी अचानक मृत्यु हो गई। क्या उनकी मौत सामान्य थी या उनकी हत्या की गयी थी? कहा जाता है कि समझौते के बाद कई लोगों ने शास्त्री को बेचैनी की हालत में अपने कमरे में टहलते हुए देखा था। कुछ लोगों का तो ये भी कहना था कि वो इस डील से बहुत खुश नहीं थे।
शास्त्रीजी के कमरे में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि शास्त्रीजी को अयूब खान के निमंत्रण पर इस्लामाबाद जाना चाहिए या नहीं। उनके सहयोगी शर्मा ने कहा कि उन्हें पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए। अयूब खान किसी भी स्तर तक जा सकता हैं और शास्त्री जी की जान को भी खतरा हो सकता है। इस पर शास्त्रीजी ने कहा, ‘अब वह कुछ नहीं कर सकता, हमारे बीच डील हो गई है और फिर भी अयूब एक अच्छा आदमी है।’
राजदूत के रसोइये ने रात का खाना बनाया था, जिसके बाद शास्त्रीजी ने रामनाथ से इसे परोसने के लिए कहा। खाने में आलू, पालक और करी शामिल थी। ये खाना तत्कालीन राजदूत टीएन कौल के यहां से बन कर आया था। पहले उनका खाना रामनाथ पकाते थे, लेकिन उस दिन जान मोहम्मद (भारतीय राजदूत पी.एन. कौल के शेफ) ने बनाया था।
किचन में जान की मदद दो महिलाएं कर रही थीं। वह रूसी खुफिया विभाग से थीं और खाना पैक करके रूस भेजे जाने से पहले शास्त्रीजी का खाना चखती थीं। कुलदीप नैय्यर लिखते हैं कि शास्त्रीजी का पानी भी चखा गया था।
शास्त्री जी भोजन कर रहे थे तभी फोन की घंटी बजी। फोन पर दिल्ली से उनके दूसरे सहायक वेंकटरमन थे। फोन उनके निजी सहायक जगन्नाथ सहाय ने उठाया। वहां से वेंकटरमन ने भारत में राजनीतिक उथल-पुथल की जानकारी दी। भारत में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सुरेंद्र नाथ तिवारी और जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी ने इस फैसले की आलोचना की थी जिससे शास्त्री जी चिंतित हो गये थे। तब शास्त्रीजी ने काबुल से अगले दिन के समाचार पत्र मंगवाये।
उनके बेटे अनिल शास्त्री कहते हैं, ‘उस रात उन्होंने भारतीय अखबार काबुल मंगवाए थे। तब तक उनकी बातचीत और तबीयत में कोई शिकायत नहीं थी। इसका मतलब है कि वह जानना चाहते थे कि उनके फैसले का देश पर क्या असर हुआ है।’
वो अपनी अपनी बेटी कुसुम की बात मानते थे, उन्होंने फोन पर पूछा ‘तुम्हें फैसला कैसा लगा?’ कुसुम ने कहा, ‘मुझे अच्छा नहीं लगा।’
शास्त्रीजी पूछते हैं कि अम्मा को यह निर्णय कैसा लगा, उनसे बात कराओ। वह अपनी पत्नी ललिता शास्त्री को अम्मा कहते थे। बेटी ने कहा, ‘अम्मा आप से नाराज हैं और बात करने से मना कर रही हैं। आपने भारत का जीता हुआ हिस्सा पाकिस्तान को क्यों दिया?
जगन्नाथ सहाय के मुताबिक इस फोन कॉल के बाद शास्त्रीजी दुखी हो गए। रामनाथ ने उन्हें पीने के लिए दूध दिया। सोने से पहले दूध शास्त्रीजी की दिनचर्या का हिस्सा था। शास्त्री जी ने रामनाथ को सोने के लिए कहा। रामनाथ ने उनके कमरे में ही फर्श पर सोने की पेशकश दिया।
कुलदीप नैय्यर अपनी किताब में लिखते हैं कि अगले दिन उन्हें अफगानिस्तान जाना था, जिसकी पैकिंग पहले से ही हो रही थी। ताशकंद के समय के मुताबिक रात 1:30 बजे शास्त्री जी को जगन्नाथ सहाय ने लॉबी में लड़खड़ाते हुए देखा था। वो कुछ बोलने की कोशिश कर रहे थे, बड़ी मुश्किल से उसने कहा, ‘डॉक्टर साहब कहां हैं?’
जिस कमरे में पैकिंग हो रही थी, उसमें शास्त्रीजी के डॉक्टर आर एन चुग सो रहे थे। जगन्नाथ सहाय ने एक सुरक्षा गार्ड की मदद से उन्हें जल्दी से बिस्तर पर लिटाया, पीने के लिए पानी दिया और कहा, ‘बाबूजी, आप अभी ठीक हो जाएंगे।’
शास्त्रीजी ने अपना हाथ अपने दिल के पास रखा और फिर वे बेहोश हो गये। निजी चिकित्सक आर एन चुग ने उनकी पल्स चेक की और उनकी मौत की पुष्टि की। मन रखने के लिए रूस के भी डॉक्टर बुलाए गए। इंजेक्शन दिया गया, लेकिन कोई हरकत नहीं हुई।
कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब में शास्त्रीजी के कमरे के बारे में लिखा है कि उनका स्लीपर कालीन वाले फर्श पर साफ-सुथरा, बिना पहना हुआ रखा हुआ था। ड्रेसिंग टेबल पर एक थर्मस उल्टा पड़ा हुआ था, मानों उसे खोलने का प्रयास किया गया हो। कमरे में कोई अलार्म या बजर नहीं था जो आमतौर पर होता है। कमरे में तीन फोन थे, लेकिन तीनों बिस्तर से काफी दूर थे।
कुछ देर बाद तिरंगा झंडा लाया गया और उससे शास्त्री जी को ढक दिया गया। उसके बाद तस्वीर ली गई और अगले दिन शव भारत लाया गया।
शास्त्री जी के परिवार का आरोप था कि उनका शरीर नीला पड़ गया था। जहर देने की बात इसलिए भी कही जा रही थी, क्योंकि उस रात का खाना रामनाथ की जगह टीएन कौल के रसोइये जान मोहम्मद ने बनाया था।
संदेह के आधार पर, रूसी अधिकारियों ने जान मोहम्मद को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन बाद में उसे रिहा कर दिया गया। बाद में, जान मोहम्मद को राष्ट्रपति भवन में नौकरी मिल गई।
शरीर नीला पड़ जाने से जहर देने की बात को बल मिला, जिसे कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब में खारिज कर दिया। वह लिखते हैं कि उन्हें बताया गया था कि शरीर को खराब होने से बचाने के लिए उस पर केमिकल और बाम लगाया गया था जिसके कारण यह नीला पड़ गया था।
शास्त्री जी की मौत की जांच की बात लगातार उठती रही। तत्कालीन सरकार ने पोस्टमॉर्टम भी नहीं कराया था। 1977 में जनता पार्टी सरकार ने जांच के लिए राज नारायण समिति नामक एक समिति का गठन किया। सबसे पहले उनके डॉक्टर आरएन चुघ को पूछताछ के लिए बुलाया जाना था, लेकिन उनकी कार एक ट्रक से टकरा गई।
इस दुर्घटना में डॉक्टर चुग की मृत्यु हो गई और उनकी बेटी जीवन भर के लिए विकलांग हो गई। उनके असिस्टेंट रामनाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ। एक सड़क दुर्घटना में वह बुरी तरह घायल हो गए और उनकी याददाश्त चली गई। इस कमेटी की रिपोर्ट की हालत भी खराब हो गई है और रिपोर्ट आज तक पेश नहीं की गई है।
1965 के युद्ध में भारत ने अमेरिका के सहयोगी पाकिस्तान को हरा दिया था। अमेरिका के दबाव के बावजूद भारत ने अपना परमाणु कार्यक्रम बंद करने से इनकार कर दिया था। भारत परमाणु हथियार विकसित कर रहा था और वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा 1944 से ही इसमें शामिल थे। संयोगवश, शास्त्रीजी की मृत्यु के ठीक 13 दिन बाद 24 जनवरी को एक विमान दुर्घटना में उनकी भी मृत्यु हो गई।
ये दोनों बातें एक इंटरव्यू से जुड़ी हुई हैं। जब ये दोनों घटनाएं हुईं तब रॉबर्ट क्राउली अमेरिका की खुफिया एजेंसी CIA के प्लानिंग डायरेक्टर थे। क्राउली ने 1993 में अमेरिकी पत्रकार ग्रेगरी डगलस को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा कि जनवरी 1966 में CIA ने ही शास्त्री और डॉ. होमी भाभा दोनों की हत्या कर दी थी।
क्राउली ने पत्रकार से यह भी कहा कि यह इंटरव्यू उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित किया जाना जाए। इस इंटरव्यू में उसने शास्त्री जी की हत्या की वजह भी बताई। उसने कहा कि अमेरिका को डर था कि रूस के हस्तक्षेप से भारत की पहुंच मजबूत होगी और पाकिस्तान का हारना अमेरिका की सुपर पावर छवि को नुकसान पहुंचाएगा।