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भारत में आरक्षण का इतिहास (History of reservation in India), Communal Award and Poona Pact, आरक्षण की आवश्यकता क्यों? भारत में आरक्षण को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधान,
सरल शब्दों में, भारत में आरक्षण का मतलब आबादी के कुछ वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और विधान सभाओं में सीटें आरक्षित करना है।
भारत में आरक्षण व्यवस्था आजादी से पहले ही शुरू हो गई थी, जिसकी नींव आज से करीब 141 साल पहले और आजादी से करीब 65 साल पहले रखी गई थी। 19वीं सदी के महान भारतीय बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने सभी के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रतिनिधित्व के साथ-साथ पूरे देश में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की मांग की।
ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने ब्राह्मण समुदाय की अवहेलना की और बिना किसी ब्राह्मण या पुजारी के विवाह समारोह शुरू किया और इसे मुंबई हाईकोर्ट ने मंजूरी भी दे दी। उन्ही की वजह से पिछड़े और अछूत वर्गों के कल्याण के लिए 1882 में हंटर कमीशन की स्थापना की गई।
आरक्षण के संबंध में हम देश में हुई कई महत्वपूर्ण घटनाओं और परिवर्तनों को देख सकते हैं, जिनके कारण भारत में आरक्षण प्रणाली बनाई और लागू की गई।
1909 में भारत सरकार अधिनियम 1909 लाया गया और 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया और इसमें कई बदलाव भी किये गये।
1921 में, मद्रास प्रेसीडेंसी ने जाति अध्यादेश लागू किया जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, एंग्लो-इंडियन के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया।
जनवरी 1931 में दूसरा गोलमेज सम्मेलन लंदन में आयोजित किया गया, जिसमे महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अम्बेडकर दोनों ने भाग लिया था। यहां अम्बेडकर ने दलितों के लिए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की, जिसका महात्मा गांधी ने सम्मेलन के समय ही विरोध किया था।
ब्रिटिश सरकार ने 16 अगस्त, 1932 को कम्युनल अवार्ड की शुरुआत की। इसमें दलितों के साथ-साथ कई समुदायों को भी अलग निर्वाचन क्षेत्रों का अधिकार दिया गया। इसके अलावा दलितों को 2 वोटों का अधिकार भी मिला। इसका मतलब यह हुआ कि दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि।
सांप्रदायिक पुरस्कार (Communal Award), जिसे मैकडोनाल्ड पुरस्कार के रूप में भी जाना जाता है, की घोषणा ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद की थी।
यह पुरस्कार भारत के कई सांप्रदायिक हितों के बीच संघर्ष को सुलझाने का एक प्रयास था। इसने दलितों (तब “दलित वर्ग” कहा जाता था) सहित विभिन्न धार्मिक और सामाजिक समुदायों को अलग निर्वाचन क्षेत्र दिए। पुरस्कार के प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं:
जब दलितों को दो वोटों का अधिकार मिला तो महात्मा गांधी ने इसका विरोध शुरू कर दिया। उनका मानना था कि दलितों को दो मतदान के अधिकार और अलग निर्वाचन क्षेत्र हिंदू समाज को विभाजित कर देंगे। दलित एक ही समाज में हिंदुओं से अलग हो जायेंगे। महात्मा गांधी ने इसके विरोध में ब्रिटिश सरकार को कई पत्र लिखे।
18 अगस्त को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि वह अपनी जान देकर भी इस फैसले का विरोध करेंगे। गांधी जी ने 9 सितंबर को भी यही बात दोहराई. हालाँकि, लेकिन, अंग्रेजों पर इस बात का कोई असर नहीं हुआ।
ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की अफवाह पाकर महात्मा गांधी को देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिया। 18 सितम्बर को महात्मा गांधी ने जेल से घोषणा की कि जब तक दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का निर्णय वापस नहीं लिया जाता, तब तक वे कुछ नहीं खायेंगे। मरते दम तक भूखे रहेंगे। महात्मा गांधी की आखिरी भूख हड़ताल 1918 में अहमदाबाद में कपड़ा मिल श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि की मांग को लेकर थी।
अंग्रेजों को डर था कि महात्मा गांधी की ऐसी मौत से भारत के लोग भड़क सकते हैं। ब्रिटेन ने स्पष्ट कर दिया कि वह हिंदुओं और हरिजनों को स्वीकार्य किसी भी निर्णय को स्वीकार करने के लिए तैयार है।
22 सितंबर को, अंबेडकर पुणे के यरवदा जेल में गांधी से मिलने के लिए पहुंचे। गांधीजी के सेक्रेटरी महादेव देसाई के नोट्स के अनुसार, अंबेडकर ने कहा, कि वह दलितों के लिए राजनीतिक शक्ति चाहते हैं। यह उनकी समानता के लिए जरूरी है। दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे। 23 सितंबर को भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला।
क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अंबेडकर एंड अनटचबिलिटी’ लिखा है कि, अगली सुबह महात्मा गांधी के बेटे देवदास गांधी ने आंखों में आंसू भरकर अंबेडकर से विनती की और कहा, ‘पिताजी की तबीयत ज्यादा बिगड़ रही है।
23 सितंबर को, यरवदा जेल में अपनी भूख हड़ताल के तीसरे दिन, महात्मा गांधी का रक्तचाप खतरनाक स्तर से ऊपर बढ़ने लगा। अम्बेडकर समझौते के लिए सहमत हो गये। 24 सितंबर को शाम 5 बजे 23 लोगों ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किये। मदन मोहन मालवीय ने हिंदुओं और गांधीजी की ओर से इस समझौते पर हस्ताक्षर किए। वहीं, अम्बेडकर ने दलितों की ओर से हस्ताक्षर किये।
समझौते में तय हुआ कि अपर कास्ट के हिंदुओं के साथ दलित भी वोट करेंगे। ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए 71 सीटें दी थीं, जिसे बढ़ाकर 148 कर दिया गया। सी राजगोपालचारी ने अंबेडकर के साथ फाउंटेन पेन का आदान-प्रदान करके समझौते पर मुहर लगाई।
यहाँ हुए समझौते को ही पूना पैक्ट कहा जाता है। इसमें गांधी और अंबेडकर इस बात पर सहमत हुए कि दलितों सहित सभी हिंदू सभी उम्मीदवारों को वोट देंगे। हिंदुओं और दलितों के बीच के इस अंतर को खत्म करने के लिए अंबेडकर ने 10 साल की समय सीमा पर सहमति जताई, जबकि पहले वह 15 साल की मांग कर रहे थे। दूसरी ओर, महात्मा गांधी इसे 5 साल करने पर अड़े हुए थे।
वे अंत तक सहमत नहीं हुए, तब सी. राजगोपालाचारी ने सुझाव दिया कि इस मामले पर बाद में चर्चा की जा सकती है, इस पर अम्बेडकर और महात्मा गांधी दोनों सहमत हुए।
पैक्ट पर हस्ताक्षर होने के बाद उसे लंदन भेज दिया गया। जब यह लंदन पहुंचा तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैक्डोनाल्ड शाही परिवार के किसी सदस्य की शोक सभा में शामिल होने गये थे। खबर मिलते ही वह 10 डाउनिंग स्ट्रीट आ गये और अपने सहयोगियों के साथ आधी रात तक उस दस्तावेज को पढ़ते रहे।
27 सितंबर को एक घोषणा की गई। ब्रिटिश सरकार द्वारा पूना पैक्ट के स्वीकृति की सूचना लंदन और दिल्ली में एक साथ दी गई। यह जानकारी यरवदा जेल में महात्मा गांधी को दी गई। इसके बाद उन्होंने शाम 5.15 बजे अपना अनशन खत्म किया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर का विचार केवल 10 वर्षों के लिए आरक्षण लागू करके सामाजिक समरसता लाने का था, लेकिन यह पिछले सात दशकों से जारी है। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए और यदि ऐसा होता है तो यह निजी स्वार्थ है। – जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, सुप्रीम कोर्ट (EWS आरक्षण पर फैसला देते हुए)
गुलामी की जंजीरें टूट गईं, संविधान सभा में नीति निर्माताओं को लगा कि जब अंग्रेज चले गए तो भारतीयों को आरक्षण की जरूरत क्यों है? बहस को देखते हुए संविधान सभा ने एक सलाहकार समिति का गठन किया और उसने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण की सिफारिश की और इस पर चर्चा भी हुई।
अंत में बड़ा सवाल यह था कि आरक्षण कब तक चलेगा? संविधान सभा के सदस्य हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि संविधान लागू होने के बाद 10 साल तक आरक्षण के प्रावधान में कोई बाधा नहीं आएगी, लेकिन यह प्रावधान अनिश्चित काल तक लागू नहीं रहना चाहिए।
समय-समय पर इसकी जाँच की जानी चाहिए कि क्या यह प्रावधान वास्तव में पिछड़े वर्गों की स्थिति में बदलाव लाता है या नहीं। ठाकुर दास भार्गव ने यह भी कहा था कि ऐसा प्रावधान 10 साल से ज्यादा नहीं रखा जाना चाहिए और बेहद जरूरी होने पर ही इसे बढ़ाया जाना चाहिए। निज़ामुद्दीन अहमद ने कहा कि नहीं, यह सिस्टम अनिश्चित काल तक रखी जानी चाहिए, लेकिन यह प्रस्ताव पारित नहीं हुआ।
संविधान सभा ने सरकारी शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में एसी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण तय किया था, जो 10 साल के लिए था। कहा गया था कि दस साल बाद इसकी समीक्षा की जायेगी, लेकिन सच्चाई यह है कि 75 वर्षों तक हर 10 साल में बिना किसी गंभीर समीक्षा के आरक्षण बढ़ाया जाता रहा।
मुसलमानों को 1892 से सुविधाएं मिल रही हैं, ईसाइयों को 1920 से सुविधाएं मिल रही हैं। अनुसूचित जाति को सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं, इसलिए उन्हें लंबे समय तक सुविधाएं दी जानी चाहिए। चूंकि एक बार में 10 साल के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पारित हो गया है, मैं इसे स्वीकार करता हूं। हालाँकि, इसे बढ़ाने का विकल्प हमेशा मौजूद रहना चाहिए। – डॉ. भीमराव अम्बेडकर (संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष)